मुंबई, 3 मार्च (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – कार्यकर्ताओं का कहना है कि जब तक अपनी जड़े फैला चुके लैंगिक और जातिगत भेदभाव की स्थिती नही बदलती तब तक सबसे गरीब महिलाओं को मजबूरी में अन्य लोगों के मलमूत्र साफ करने से रोकने के लिए बना देश का नया कानून पूरी तरह कारगर नही होगा।
लंबे समय से दलित समूह के सदस्य हाथ से शुष्क शौचालयों और खुले नालों से मल की सफाई करने के लिए मैला ढोते है। देश की जाति व्यवस्था में उनका सबसे नीचा स्थान होता है।
अभियान समूह-जन साहस के अनुसार देश के अनुमानित 13 लाख मैला ढोने वालों में से कम से कम 90 प्रतिशत महिलाएं हैं।
जन साहस के संस्थापक सैयद आसिफ शेख ने कहा, "यह न केवल जातीय, बल्कि लैंगिक भेदभाव का भी मामला है, क्योंकि महिलाओं को इस घिनौने काम को करने के लिए मजबूर किया जाता है।" वे कहते है कि उन की संस्था ने 21,000 से अधिक दलित महिलाओं को यह काम करने से मुक्ति दिलाई है।
उन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "यह नौकरी नही, गुलामी है। महिलाओं के पास कोई विकल्प नही है, उन्हें बहुत ही कम मेहनताना दिया जाता है और अगर वे यह काम करना छोड़ दें, तो हिंसा की धमकी दी जाती है। उन पर गांव, समुदाय, और उनके अपने परिवारों का भारी दबाव होता है।"
देश में 1955 से जातिगत भेदभाव पर प्रतिबंध है और मैला ढोने की कुप्रथा को समाप्त करने के लिये कई कानून पारित किये गये है। सरकार ने स्वच्छता के तरीकों को आधुनिक बनाने का वादा किया है और मैला ढोने का काम करवाना अपराध है। दिसंबर में पारित कानून में और भी कड़े दंड का प्रावधान है।
मानवाधिकार संगठनों का कहना है इन सबके बावजूद अगर दलित समुदाय यह काम छोड़ने की कोशिश करता है, तो उन्हें हिंसा झेलनी पड़ती है, उन्हें बेदखल कर दिया जाता है और उनकी मजदूरी नही दी जाती है।
2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तेजी से बढ़ रही अर्थव्यवस्था में स्वच्छता में सुधार के लिये “स्वच्छ भारत मिशन” का शुभारंभ किया और खुले में शौच को समाप्त करने के लिए सार्वजनिक शौचालय की राशि को बढ़ाया।
शेख ने कहा कि इस अभियान से मैला ढोने वालों की दुर्दशा की ओर ध्यान गया और राज्य सरकारें इस पर कार्रवाई करने को मजबूर हो गईं। सरकार ने प्रत्येक मैला ढोने वाले को 40,000 रुपए दिये और वैकल्पिक रोजगार के लिए प्रशिक्षण की व्यवस्था की गई।
आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, अभी भी नीची-जाति के लोगों के खिलाफ अपराध बढ़ रहे हैं। 2014 में 47,000 से अधिक ऐसे अपराध हुये, जो पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 20 प्रतिशत अधिक है।
कोपेनहेगन स्थित अंतरराष्ट्रीय दलित एकता नेटवर्क ने मैला ढोने को "जाति आधारित और वंशानुगत गुलामी का रूप" बताया है।
न्यूनतम से भी कम मजदूरी मिलने के कारण मैला ढोने वालों को अक्सर अपनी उच्च-जाति के मालिकों से पैसे उधार लेने पड़ते है, जिसकी वजह से वे ऋण बंधक बन जाते हैं।
2011 में सरकार ने अनुमान लगाया गया कि 1 लाख 80 हजार से अधिक ग्रामीण घरों में हाथ से मैला ढोया जाता हैं। सूची में सबसे ऊपर - महाराष्ट्र ने मार्च के अंत तक इस कुप्रथा को समाप्त करने की समय सीमा तय की है।
राज्य के सामाजिक न्याय विभाग में वरिष्ठ अधिकारी यू. एस. लोनारे ने कहा, "हमने ग्रामीण क्षेत्रों में शौचालयों के निर्माण के लिए प्रोत्साहन राशि दी है और कुछ जिलों में इन लोगों को वैकल्पिक रोजगार भी दिया गया है।"
उन्होंने तय समय सीमा में कार्य पूरा होने के बारे में कुछ नही बताया।
जन साहस के शेख ने कहा कि नए कानून को पूरी तरह से लागू किया जाना चाहिए।
उन्होंने कहा, "अगर एक महिला को भी मजबूरन यह काम करना पड़े, तो शर्म की बात है। यह अपराध है।"
(रिपोर्टिंग-रीना चंद्रन, संपादन-केटी नुएन। कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। और समाचारों के लिये देखें http://news.trust.org)
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