चेन्नई, 4 अप्रैल (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – कार्यकर्ताओं का कहना है कि देश में तेजी से बढ़ रहा जूता उद्योग घर से काम करने वाली महिलाओं पर निर्भर है, लेकिन उन्हें न्यूनतम मजदूरी से भी कम मिलता है और उनके कोई कानूनी अधिकार भी नहीं है। श्रम शोषण के संकेतों को देखते हुये उन्होंने जूते आयात करने वाली कंपनियों से भारत की जूता आपूर्ति श्रृंखला की जांच करने का आग्रह किया हैं।
तमिलनाडु का अम्बुर कस्बा देश के फुटवियर निर्यात उद्योग केंद्रों में से एक है और यहां सबसे अधिक श्रमिक घर से काम करते हैं।
श्रमिकों के लिये अभियान चला रहे कार्यकर्ताओं का कहना है कि क्षेत्र के कारखानों में जूतों को जोड़ने के लिये उच्च वेतन पर लोगों रखा जाता है, जबकि उत्पादकों के लिये जूते के ऊपरी हिस्से की सिलाई जैसे अति परिश्रम के इस कार्य को घर से काम करने वाली महिलाओं से करवाना सस्ता पड़ता है। इसलिये वे बिचौलियों के जरिये इन महिलाओं को काम देते हैं।
सीवीडेप इंडि़या के महासचिव गोपीनाथ पाराकुनी ने सोमवार को थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "ऐसा करके वे उन सभी श्रम मानदंडों को दरकिनार करते हैं, जिनमें भारतीय श्रम कानूनों के तहत घर से काम करने वाले श्रमिकों को काम उपलब्ध कराने की गारंटी और उनके बुनियादी अधिकार सुनिश्चित करना होता है।"
उन्होंने कहा, "उन्हें तमिलनाडु सरकार द्वारा तय 126 रूपए की न्यूनतम मजदूरी भी नहीं मिलती है।"
मजदूरों के अधिकारों और कॉर्पोरेट जवाबदेही पर अभियान चलाने वाले पाराकुनी ने कहा, "गरीब और वंचित समुदायों की यह महिलाएं उस गैर कानूनी उत्पादन का हिस्सा हैं, जिसमें उनका शोषण किया जाता हैं।"
सीवीडेप इंडि़या और ब्रिटेन के गैर सरकारी संगठन- होम वर्कर्स वर्ल्डवाइड एंड लेबर बीहाइंड द लेबल द्वारा पिछले महिने प्रकाशित संयुक्त रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक आपूर्ति के लिये जूते बनाने वाली महिलाओं को एक जोड़ा जूते बनाने के लिये करीबन साढ़े आठ रूपए से भी कम का भुगतान किया जाता है, और इन जूतों को ब्रिटेन में 3900 रूपए से लेकर 9300 रूपए में बेचा जाता है।
इस काम के लिये महिलाओं को फर्श पर लंबे समय तक जूते के साथ चिपक कर बैठना पड़ता है और सुई से कड़े चमड़े की सिलाई करनी पड़ती है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि उन्हें गर्दन, पीठ और कंधे में दर्द, कम दिखने और सिर दर्द की शिकायत होती है। इनके साथ ही उनके हाथ और उंगलियों पर घाव भी हो जाते हैं।
घर से काम करने वाली सुमित्रा ने रिपोर्ट के लेखकों में बताया, "कई बार मैं देर रात तक काम करती हूं, लेकिन जब मैं ऐसा करती हूं तो अगले दिन मैं काम नहीं कर पाती हूं, क्योंकि मेरी उंगलियों में सूजन आ जाती है।"
उसने कहा, "एक जोड़ी जूते बनाने के बाद मेरे हाथ से सूजन उतरने में एक घंटा लग जाता है।"
उसने कहा, "इस ऊपरी अच्छे काम की सिलाई करने से हमारी छाती में दर्द होने लगता है। चमड़े में मौजूद कीटाणुओं से हमारे हाथ संक्रमित हो जाते है। इस काम की वजह से मुझे भी फाइब्रोसिस हो गया है।"
कम वेतन और काम की विपरित परिस्थितियों के बावजूद महिलाओं ने रिपोर्ट के लेखकों को बताया कि उन्हें लगता है कि उनके पास कम ही विकल्प है, क्योंकि अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से वे घर से दूर जाकर काम नहीं कर सकती हैं।
विधवाओं या बीमार पतियों की पत्नियों के परिवार की आय का एकमात्र स्रोत यही काम होता है।
रिपोर्ट के अनुसार, भारत विश्व में जूते-चप्पलों का आठवां सबसे बड़ा निर्यातक है। 2012 से 2014 के बीच भारत से जूतों का निर्यात 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ा है और 2014 में 20 करोड़ जूतों का निर्यात किया गया।
कार्यकर्ता भारत से चमड़ा और चमड़े के उत्पाद खरीदने वाली कंपनियों से चमड़े को आकार देने से लेकर अंतिम उत्पाद की आपूर्ति श्रृंखला के ढ़ांचे पर सावधानीपूर्वक ध्यान देने का आग्रह कर रहे हैं।
आपूर्ति श्रृंखला के खतरों के बारे में जानने के लिये गैर सरकारी संगठनों ने 14 कंपनियों से संपर्क किया। कुछ कंपनियों ने समस्या को स्वीकारा और अन्य कम्पनियों ने कुछ जानकारी भी दी।
गैर सरकारी संगठनों का कहना है कि केवल भारत में ही नहीं, बल्कि कई देशों में फुटवियर उद्योग कम लागत में स्थिति के अनुरूप घर से काम करने वाले श्रमिकों पर निर्भर है।
रिपोर्ट में कहा गया कि "पुर्तगाल से बुल्गारिया, पूर्वी यूरोप से उत्तरी अफ्रीका और भारत तक कोई भी स्थान हो घर में काम करने वाले श्रमिक ही जूते बनाने का हिस्सा होते है और सभी स्थानों पर काम करने की स्थितियां भी एकसमान ही होती है।"
(रिपोर्टिंग-अनुराधा नागराज, संपादन- अलेक्स वाइटिंग। कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। और समाचारों के लिये देखें http://news.trust.org)
Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.