×

Our award-winning reporting has moved

Context provides news and analysis on three of the world’s most critical issues:

climate change, the impact of technology on society, and inclusive economies.

तहकीकात - भारत की "भयावह" अभ्रक की खानों को बचाने के लिये वहां के बाल मजदूरों की मौत की खबरों को छुपाया गया

by नीता भल्ला, रीना चंद्रन और अनुराधा नागराज | Thomson Reuters Foundation
Wednesday, 3 August 2016 00:01 GMT

• तहकीकात में पता चला है कि अवैध अभ्रक खदानों में बच्‍चों की मौत को छुपाया गया

• पिछले दो महीने में कम से कम सात बच्चों की मौत हुई है, लेकिन इनके बारे में नहीं बताया   गया

• सरकारों पर खानों को वैध बनाने का उपाय करने का दबाव

 

Blood Mica
Deaths of child workers in India's mica "ghost" mines covered up to keep industry alive
Enter

-    नीता भल्ला, रीना चंद्रन और अनुराधा नागराज

     कोडरमा / भीलवाड़ा / सायदापुरम, 3 अगस्त (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की तहकीकात में पता चला है कि देश की उन अवैध अभ्रक की खदानों की गहराई में बच्‍चों की मौत के रहस्‍य दबे हुये है, जहां वयस्‍कों के साथ पांच साल के बच्‍चे भी अंधेरे में दुबक कर काम करते हैं। पिछले दो महीने में मारे गए सात बच्‍चों की मौत की खबर को छुपाया गया।

  प्रमुख अभ्रक उत्पादक राज्य- बिहार, झारखंड, राजस्थान और आंध्र प्रदेश में तीन महीने की लगातार पड़ताल में पता चला है कि सौंदर्य प्रसाधन और कार के रंग में चमक लाने के लिये उपयोग में आने वाले मूल्यवान खनिज के खनन और छंटाई के लिये उपयुक्‍त नन्‍हें हाथों से बाल मजदूरी करवाई जाती है।

  लेकिन मजदूरों और स्थानीय लोगों के साथ बातचीत में पता चला कि सरकारी पंहुच से दूर इन "भयावह" खानों में काम कर रहे बच्चे न केवल अपने स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, बल्कि वे इन गैरकानूनी, खस्‍ताहाल खदानों में दम तोड़ रहे हैं। जून से अब तक सात बच्‍चों की मौत हो चुकी है।

  बिहार के ईंट-गारे से बने चंदवाड़ा गांव में रहने वाले एक पिता के दुख ने अवैध खनन की बदसूरत वास्तविकता को उजागर कर दिया। देश के अभ्रक उत्पादन का करीबन 70 प्रतिशत उत्‍पादन अवैध खनन से होता है।

   वासुदेव राय प्रताप के 16 वर्षीय पुत्र मदन की 23 जून को पड़ोसी राज्य- झारखंड की अभ्रक खदान में दो अन्य वयस्क श्रमिकों के साथ मौत हो गयी थी।

     किशोर की मौत पर शोक जताने आये मित्रों और परिवारजनों के साथ अपने घर के बाहर चारपाई पर बैठे प्रताप ने कहा, "मैं नहीं जानता था कि खानों में काम करना इतना खतरनाक है। अगर मुझे पता होता, तो मैं उसे कभी भी नहीं जाने देता।"

     "उन्होंने बताया कि खान ढहने के बाद पूरे एक दिन खुदाई करने पर उसके शव को बाहर निकाला जा सका। उन्होंने मुझे बताए बिना उसका अंतिम संस्कार कर दिया। उसके दाह संस्‍कार से पहले मैं अपने बेटे को देख भी नहीं पाया।"

     प्रताप जैसे अन्य पीड़ित परिवार और खान संचालक मौत की सूचना नहीं देतेहैं, बल्कि संरक्षित वन भूमि पर अवैध खनन समाप्त कराने का खतरा उठाने की बजाय वे अपनी क्षति की भरपाई राशि ले लेते हैं। संरक्षित वन भूमि पर अवैध खनन भारत के कुछ सबसे गरीब क्षेत्रों में रहने वालों के लिए आय का स्रोत है।

     इस किसान ने कहा कि खान के संचालक ने उसे एक लाख रुपये देने वादा किया गया था, लेकिन अभी तक उसे वह पैसा नहीं मिला है।

        मदन एक अवैध खदान में काम करता था और उसकी मौत पर प्रतिक्रिया देने के लिए वहां कोई भी उपलब्ध नहीं था।

      भारतीय कानून में 18 साल से कम उम्र के बच्‍चों से खानों और अन्य खतरनाक उद्योगों में काम करवाने पर प्रतिबंध है, लेकिन बेहद गरीबी में गुजर बसर करने वाले कई परिवार अपने बच्चों की कमाई पर निर्भर होते हैं।  

   थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के निष्कर्षों को नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी के बाल संरक्षण समूह-बचपन बचाओ आंदोलन (बीबीए) का समर्थन प्राप्‍त है, जिसने जून में मदन और दो अन्य बच्चों सहित अभ्रक की खानों में हुई 20 मौतों के सबूत जुटाये हैं और यह मासिक औसत से दुगुना है।

 बीबीए ने पाया कि जुलाई में चार बच्चे मारे गए थे।

   भारत, विश्‍व में चांदी के रंग के  क्रिस्टलीय खनिज के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है। पर्यावरण अनुकूल होने के कारण हाल के वर्षों में कार और निर्माण, इलेक्ट्रॉनिक्स और सौंदर्य- प्रसाधन के क्षेत्र के बड़े वैश्विक ब्रांडों द्वारा प्रमुखता से इसका इस्तेमाल किया जाता है।

  "मुआवजा"

      खान मंत्रालय के प्रवक्ता वाई.एस. कटारिया ने कहा कि अभ्रक खदानों की सुरक्षा राज्य सरकारों की जिम्‍मेदारी है, जिन पर अवैध खदानों को लाइसेंस देने का खनन उद्योग का दबाव बढ़ रहा है।

  सामाजसेवी भी इन आह्वानों का समर्थन करते हैं, उनका दावा है कि इससे अभ्रक की काला बाजारी, श्रमिकों का शोषण, दुर्व्‍यवहार और बच्चों की मौत के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने में मदद मिलेगी।

   प्रवक्ता कटारिया ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "केंद्र सरकार के पास खानों के निरीक्षण या उनको नियंत्रित करने के कोई साधन नहीं है।"

  लगभग एक दशक से झारखंड की अभ्रक खदानों में बाल श्रम रोकने की कोशिश कर रहे बीबीए कार्यकर्ताओं का कहना है कि पिछले दो महीने में मदन और छह अन्य लोगों की मौत इस समस्‍या का अंशमात्र है। उनका अनुमान है कि अभ्रक खदानों में मरने वालों में से 10 प्रतिशत से भी कम के बारे में पुलिस को सूचना दी जाती है।

  बीबीए के झारखंड परियोजना समन्वयक राज भूषण  ने कहा, "हालांकि खानों में मरने वाले बच्चों की संख्‍या के बारे में कोई आधिकारिक आंकड़े उपलब्‍ध नहीं हैं, क्‍योंकि यह सब खानें अवैध है। हमें उनके बारे में गांवों के हमारे नेटवर्क के माध्यम से पता चलता है।"

     "आम तौर पर  एक महीने में औसतन लगभग 10 मौत के बारे में पता चलता है। लेकिन जून में हमें 15 साल के दो लड़कों सहित 20 से अधिक लोगों की मौत के प्रमाण मिले हैं।"

  मारे गये बच्‍चों की संख्या के बारे में जानकारी देने के लिये खान सुरक्षा महानिदेशालय के अधिकारी उपलब्ध नहीं थे।

    सरकारी संगठन-राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) ने जून में झारखंड के कोडरमा और गिरिडीह जिलों में तथ्यान्‍वेषी मिशन आयोजित किया, जिसमें पाया कि आठ वर्ष के बच्‍चे भी अभ्रक खदानों में खनन करते हैं।

   एनसीपीसीआर के तथ्यान्‍वेषी मिशन प्रमुख प्रियंक कानूनगो ने कहा, "हमें अब तक खदान ढ़हने जैसी खान दुर्घटनाओं में घायल या मरने वाले बच्‍चों के बारे में कोई सूचना नहीं मिली है, क्‍योंकि यह सभी गैरकानूनी है, इसलिये कोई भी खुले तौर इनके बारे में नहीं बताते हैं, लेकिन ऐसा हो सकता है।"  

     बाल श्रम कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए उत्‍तरदायी झारखंड के श्रम विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने भी कहा कि अभ्रक खनन के कारण मरने वाले बच्चों के बारे में कोई सूचना नहीं है।

  झारखंड के श्रम विभाग में प्रधान सचिव एस के जी रहाते ने कहा, "सबसे पहले अगर लोग बिना किसी मंजूरी के खनन कर रहे हैं, तो यह भूमि कानून का उल्लंघन है और अगर वे बच्‍चों से काम करवा रहे हैं, तो वे दोहरा अपराध कर रहे हैं।"

   

  "अधिकारियों को बाल श्रम की जानकारी"

     जिलाधिकारियों ने स्वीकार किया कि कुछ खानों में बाल श्रम की समस्या है, लेकिन यह उन दूरदराज के इलाकों तक सीमित है, जहां नए उद्योगों और स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में प्रशिक्षण की सरकारी सेवाएं और कल्याणकारी योजनाएं गरीबों तक नहीं पहुंच पाती है।

   गिरिडीह के जिलाधीश उमा शंकर सिंह ने कहा, "ऐसे कुछ इलाकें हैं, जहां बच्‍चों से अभ्रक का खनन कराया जाता है। हम परिवार की आय के अन्‍य स्‍त्रोत के लिये बकरी पालन, चिनाई और अचार बनाने का प्रशिक्षण देने की योजनाएं शुरू करने की कोशिश कर रहे हैं।"

डच अभियान समूह-सोमो का अनुमान है कि झारखंड और बिहार में 20,000 तक बच्‍चे अभ्रक का खनन करते हैं।

  थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की तीन महीने से अधिक की तहकीकात में पाया गया कि झारखंड, बिहार और राजस्थान की अभ्रक खदानों में तथा उसके आसपास बच्‍चे काम करते हैं।

  झारखंड में खुले गड्ढों में चमकदार चट्टानों के बीच पालथी मारे छह साल के बच्‍चे भी नंगे हाथों से शानदार, भंगुर अभ्रक के लच्‍छे निकालते हैं, जबकि कुछ बड़े बच्‍चे बेहतर सिलिकेट के लिये जर्जर सीढि़यों से खान की गहराई में उतरते हैं। 

  गिरिडीह के तिस्‍रीक्षेत्र मेंबसंती लाल मिट्टी से अभ्रक के टुकड़ों छांट रही है, जबकि उसका 10 साल का बेटा संदीप कुल्हाड़ी लिये पहाड़ी की बगल में चूहे के बिल के बराबर छेद में 3 मीटर (10 फुट) नीचे चला गया है।

   उसकी मां ने बताया कि चेक शॉर्ट्स और सफेद टी शर्ट पहने दुबला पतला उसका लड़का सात वर्ष की उम्र से खानों में काम कर रहा है और उसकी मजदूरी से परिवार की रोजाना 300 रुपए की अतिरिक्‍त कमाई होती है।

    अभ्रक से आधे भरे धातु के बर्तन के पास जमीन पर बैठते हुये उसने कहा, "मैं जानती हूं कि यह खतरनाक है, लेकिन यहां करने के लिये केवल यही काम है।"

  "मैं जानती हूं संदीप यह काम नहीं करना चाहता है, लेकिन जैसा भी है यही काम है। अगर वह स्कूल जा सके और पढ़ लिख कर कुछ बन जाये तो यह अच्छी बात है, लेकिन पहले हमें भोजन की जरूरत है।"

     "वयस्क खान श्रमिक भी सुरक्षित नहीं"

     राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में पांच साल के लड़के भी के संकीर्ण जर्जर खान में छेनी-हथौड़ी से दिन के आठ-आठ घंटे अभ्रक तोड़ते नजर आयें।

     उनकी बहने जमीन पर बैठकर दस्‍तानों के बगैर अंगुलियों से अभ्रक  झाड़ कर छांटती हैं और बड़ी उम्र की लड़कियां अभ्रक छांटकर एकत्रित करने वाले स्‍थान पर ले जाती हैं।

  राजस्थान के जोधपुर में  लाभ निरपेक्ष खान श्रमिक संरक्षण अभियान के मुख्य कार्यकारी अधिकारी राणा सेनगुप्ता ने बताया, "खदान मालिकों का कहना है कि बच्चे खानों के अंदर काम नहीं करते हैं और  वे बाहर काम कर अपने परिवार के लिए थोड़ी अतिरिक्त कमाई कर रहे हैं।"

     "लेकिन बच्चों को अंदर या बाहर खान के कहीं भी काम नहीं करना चाहिये। यहां तक की वयस्क श्रमिक भी सुरक्षित नहीं हैं।"

  भीलवाड़ा के तिलोली गांव में बारिश के पानी से आधी भरी एक खदान के पास दो छोटी लड़कियां गंदे टीले पर बैठे अभ्रक के टुकड़े छांट रही थीं।

     करीबन सात वर्ष की पूजा ने कहा, "मैं खदान के भीतर नहीं जाती हूं। यह बहुत गहरी होती है, मुझे डर लगता है। मैं बड़े टुकड़ों में से छोटे-छोटे टुकड़े छांटती हूं। यह कोई मुश्किल काम नहीं है।"

  उससे कुछ फुट की दूरी पर बैठी नौ वर्षीय पायल भी नंगे हाथों से अभ्रक के टुकड़े छांट रही थी।

     राजस्थान के श्रम मंत्रालय में आयुक्त धनराज शर्मा ने कहा कि उन्‍हें भीलवाड़ा या "राज्य में किसी अन्‍य स्‍थान पर" खानों में बाल श्रमिकों से काम करवाने के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

   उन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "उनके माता-पिता खानों में काम करते हैं और बच्चे उन लोगों के साथ रहते हैं। वे वहां खेलते है और हो सकता है कि वे माता-पिता की मदद के लिए छोटे मौटे काम करते हो। इसका यह मतलब कतई नहीं है कि वे वहां काम करते हैं।"

     हाल के वर्षों में अभ्रक की मांग बढ़ने से 19 वीं सदी का महत्‍वपूर्ण उद्योग दोबारा सक्रिय हो गया है। 19 वीं सदी के आखिर में अंग्रेजों ने झारखंड के कोडरमा, गिरिडीह और हजारीबाग तथा बिहार के नवादा, जमुई, गया और भागलपुर जिलों में फैले अभ्रक की खोज की थी।  

  वनों की कटाई रोकने के 1980 के नियम और प्राकृतिक अभ्रक के विकल्प मिल जाने की वजह से कभी 20,000 से अधिक श्रमिकों वाली 700 से अधिक खानों के इस उद्योग पर खराब असर पड़ा। लागत और कड़े पर्यावरण नियमों के चलते अधिकतर खानों को मजबूरन बंद करना पड़ा।

     भारतीय खान ब्यूरो के अनुसार वर्ष 2013-14 में देश में अभ्रक की केवल 38 रिपोर्टिंग खदाने थीं।

   "खतरा और भय"

  चीन की आर्थिक वृद्धि और वैश्विक स्‍तर पर "प्राकृतिक सौंदर्य प्रसाधनों" के लिए अभ्रक के प्रति दिवानगी के चलते एक बार फिर इस क्षेत्र में रुचि बढ़ी है, जिसके कारण गैर कानूनी संचालकों ने तेजी से  भारत की बंद पड़ी सैकड़ों खानों की ओर रूख किया है। इससे अभ्रक की काला बाजारी होने लगी है।

   भारतीय खान ब्यूरो के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2013-14 में देश में 19,000 टन अभ्रक का उत्पादन हुआ।

     लेकिन इसी में यह भी बताया गया कि एक लाख 28 हजार टन अभ्रक का निर्यात किया गया, जिसमें से आधे से अधिक  या 62 प्रतिशत अभ्रक चीन और उसके बाद जापान, अमेरिका, नीदरलैंड और फ्रांस भेजा गया।

      कई ई-मेल भेजने और फोन करने के बावजूद खान ब्यूरो से संख्या में इस विसंगति के बारे में कोई जानकारी नहीं मिल पाई। 

  भारत में रंग-रोगन बनाने के क्षेत्र में अग्रणी सुदर्शन का कहना है कि विशेषज्ञों का अनुमान है कि देश में जंगलों और खुली पड़ी खदानों से अवैध रूप से खनन कर लगभग 70 प्रतिशत अभ्रक का उत्पादन किया जाता है।

    मोबाइल फोन पर सौदा कर इस अभ्रक को विभिन्न व्यापारियों, संसाधकों और निर्यातकों को बेच दिया है और इस प्रकार बिना किसी कागजात के यह विदेशी निर्माताओं तक पंहुच जाता है।

  भीलवाड़ा में खान संचालक धारा सिंह ने बताया, "हम शहर के एजेंट को अभ्रक बेचते हैं, वह आगे इसे कोलकाता में बड़े खरीदारों को बेचता है और वे उसको चीन, अमेरिका, जर्मनी और ब्राजील को निर्यात करते हैं।" धारा सिंह का कहना है कि वह और उसका भाई भीलवाड़ा की छह खदानों के मालिक हैं।

   भीलवाड़ा के तिलोली गांव में खान के पास अभ्रक की छंटाई करती दो छोटी लड़कियों के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि वे स्वयंसेवक हैं।

    लेकिन कुछ ही देर में चार लोग दो मोटरसाइकिलों पर सवार होकर वहां पहुंचे और बातचीत करने वाले सभी लोगों को उस स्‍थान से जबरन बाहर करने लगे।

  श्रमिकों के शोषण, हिंसा की धमकी और भय के कारण इस उद्योग पर अंगुलियां उठ रही हैं। ऐसे में उद्योग के भीतर ही सभी खानों को कानूनी रूप से संचालित करवाने और गरीब वर्गों की आय के नए स्रोत तलाशने के लिये सरकार से उपाय करने की मांग बढ़ रही है।

  चीन, ब्रिटेन और जर्मनी को अभ्रक निर्यात करने वाले गिरिडीह के एक कारोबारी ने कहा, "यहां माल का भंडार है,  मांग भी है, लेकिन सरकार लाइसेंस ही नहीं दे रही है।"

    "निर्यातक लगातार काम कर रहे हैं। वे यहां-वहां से अभ्रक खरीद रहे हैं। लेकिन यहां असुरक्षा की भावना है कि किसी भी समय सरकारी छापा पड़ सकता है। बेहतर यह है कि वे लाइसेंस दें और अधिशुल्‍क लें।"

             

  "खानों के स्‍थान पर स्कूल"

     इस उद्योग में अधिक मजदूरों की जरूरत होने के कारण कुछ देशों के लिये यह आर्थिक दृष्टि से व्यावहारिक नहीं है, लेकिन भारत में यह आय का एक महत्वपूर्ण साधन है, जहां श्रम लागत कम हैं और विशेष रूप से जब बाल श्रमिकों का इस्तेमाल किया जाता है।

  बाल अधिकारों के हिमायतियों का कहना है कि अधिकारियों ने वर्षों से इन बाल श्रमिकों की अनदेखी की है, लेकिन उम्मीद है कि अभ्रक खदानों में बच्चों की मौत से वहां के खतरों की ओर उनका ध्‍यान जाये और सरकारें कार्रवाई करें।  

     सिर में चोट लगना, कटना और खरोंच, त्वचा और सिलिकोसिस, टीबी तथा अस्थमा जैसे सांस के संक्रमण सहित व्यावसायिक खतरों के अलावा गैर कानूनी खानों के खराब रखरखाव में खनन भी घातक साबित हो रहे हैं।

      बीबीए के भूषण ने कहा कि उन्‍होंने और उनके साथियों ने जून में खनन दुर्घटनाओं में मारे गए लोगों के अधिकतर परिजनों से मुलाकात की और पाया कि उनके जीने का एकमात्र साधन गैर कानूनी खनन है।

  भूषण ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "वे सभी ऐसे गरीब परिवारों से थे, जो आय के लिए अभ्रक खनन पर निर्भर हैं।"

  "उन्‍हें अच्‍छी तरह से पता है कि ये स्थान मौत का जाल हैं, लेकिन यह भी एहसास है कि अगले दिन वहीं वापस जाने के सिवाय उनके पास कोई अन्‍य विकल्प नहीं है। और बच्चों की मौत से पहले अधिकारियों को इस मुद्दे का समाधान अवश्य करना चाहिये।"

  झारखंड के कोडरमा जिले में डोमचांच के घने जंगलों में एक विशाल खुली खदान में, सुशीला देवी बड़ी तल्‍लीनता से हथौड़े से भूरी चमकदार चट्टानों से अभ्रक तोड़ कर एक बड़े प्लास्टिक के बर्तन में डाल रही है।

    छह बच्‍चों की मां 40 वर्षीय सुशीला देवी एक दशक से भी अधिक समय से प्रतिदिन अभ्रक एकत्रित करती है, लेकिन इसके बावजूद अन्य मजदूरों की तरह ही उसे भी यह नहीं पता है कि यह पदार्थ क्या है या वैश्विक बाजार में इसकी क्‍या कीमत है।

  उसने कहा, "हमें नहीं पता कि अभ्रक क्या होता है, यह कहां जाता है और इसका इस्‍तेमाल किसमें किया जाता है। मुझे सिर्फ इतना पता है कि अगर मैं कड़ी मेहनत कर इसे इकट्ठा करूंगी तो मुझे कुछ पैसा मिल जाएगा।" उसने कहा कि वह रोजाना लगभग 10 किलो अभ्रक एकत्रित कर 80 रुपये कमाती है।

   "हम इसे पास के एक अभ्रक के ठिये पर ले जाते हैं और वहां डीलर 8 रुपये प्रति किलो के हिसाब से इन्‍हें खरीद लेता है। मुझे नहीं पता कि आगे वह इसको कितनी कीमत पर बेचता है। वो हमें  कभी बतायेगा भी नहीं। वह अधिक लाभ कमाने का अवसर क्यों गंवायेगा?"

  कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसका फुटकर दाम काफी अधिक है। यूएसजीएस के आंकड़ों के अनुसार खनिकों से अभ्रक अधिकतम 25 रूपये प्रति किलो की दर से खरीदा जाता है, हालांकि उच्च गुणवत्ता की शीट या "माणिक" अभ्रक एक लाख 33 हजार रुपये प्रति किलो की दर पर भी बिकता है, जिससे कृत्रिम अभ्रक की मांग बढ़ी है।

    

  "असाधारण खनिज"

    हस्‍तनिर्मित उत्पादों और नैतिक व्यापार के लिये प्रसिद्ध ब्रिटेन की सौंदर्य प्रसाधन कंपनी लश, ने भी इस क्षेत्र में बाल श्रम को देखते हुये 2014 से अपने उत्‍पादों में प्राकृतिक के स्‍थान पर कृत्रिम अभ्रक का इस्‍तेमाल करना शुरू कर दिया है।

  लश के नैतिक व्यापार प्रमुख साइमन कांस्‍टनटाइन  का कहना है कि वे जानते थे कि कुछ गड़बड़ जरूर है, क्‍योंकि उनकी अभ्रक की आपूर्ति करने वाली एक भारतीय खान के लिये लेखा परीक्षकों के साथ सशस्त्र सुरक्षाकर्मी भेजे गये थे।

  लेकिन फुटकर बिक्री करने वाली कंपनी को इस साल इस्तेमाल हो रहे कृत्रिम  अभ्रक में प्राकृतिक अभ्रक के अंश मिले। इस कंपनी के लगभग 50 देशों में स्टोर हैं। कंपनी का कहना है कि वह इस समस्‍या से निपट रही है।

     दक्षिण तटीय शहर पूल में लश के मुख्‍यालय में एक साक्षात्कार में कांस्‍टनटाइन ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "अभ्रक ने हमें थोड़ा हमारा हैरान कर दिया है, क्योंकि यह एक नया पदार्थ है और हमने पहले इसका इस्तेमाल कभी नहीं किया गया था।"

    "लेकिन इसकी खरीदारी एक अपूर्ण प्रणाली है, जो कभी समाप्‍त नहीं होती है। इसमें अंतिम उत्‍पाद की बजाय पहले की तुलना में सुधार हुआ उत्पाद प्राप्त होता है।"

     विश्व स्तर पर 10 प्रतिशत तक अभ्रक का उपयोग सौंदर्य प्रसाधनों में किया जाता है।

     एस्‍टी लाउडर कोस इंक एक और सौंदर्य प्रसाधन कंपनी है, जो अपने उत्पादों में अभ्रक का उपयोग करती है, लेकिन उसका कहना है कि वह केवल 10 प्रतिशत अभ्रक भारत से लेती है। यह कंपनी बीबीए के साथ बाल श्रम की समस्‍या पर काम करने के अलावा अभ्रक क्षेत्रों के गांवों में स्कूलों के लिये सहायता राशि प्रदान कर रही है।

  एक ईमेल बयान में एस्‍टी लाउडर ने कहा, "हमारा दृढ़ विश्‍वास है कि इस प्रयास में शिक्षा सबसे महत्‍वपूर्ण है और युवाओं को स्कूल में रहने तथा कौशल प्रशिक्षण देने से उन्‍हें अभ्रक उद्योग के बाहर काम करने का अवसर मिल सकेगा।"

     "हालांकि इस कार्यक्रम से अभ्रक खदानों में बाल श्रम अभी समाप्त नहीं होगा, लेकिन इससे यह पता चलता है कि जिम्मेदार व्यवसायिक तरीकों और निरंतर सहयोग से अभ्रक खनन क्षेत्र में रहने वाले बच्चों का बेहतर भविष्‍य बन सकता है।"

   लोरियल का कहना है कि उसकी जरूरत का 60 प्रतिशत से अधिक प्राकृतिक अभ्रक अमेरिका से आता है और शेष अभ्रक भारत सहित अन्य देशों से मंगवाया जाता है।

  कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर कहा, "भारत में अभ्रक मुख्य रूप से सामाजिक और आर्थिक रूप से कमजोर क्षेत्रों में पाया जाता है, जहां बाल श्रम, काम करने के असुरक्षित माहौल का खतरा रहता है और वहां की आपूर्ति श्रृंखला में कई लोग शामिल होते हैं।"

  लोरियल ने कहा कि सभी का एक साथ मिलकर काम करना महत्वपूर्ण है और फ्रांस के लाभ निरपेक्ष संगठन- नेचरल रिसोर्ससेज स्‍टुवर्डशिप सर्कल (एनआरएससी) द्वारा फरवरी में दिल्ली में जवाबदेय अभ्रक स्‍त्रोत विषय पर आयोजित शिखर सम्मेलन एक अच्छी पहल है।

   एनआरएससी की कार्यकारी निदेशक कैथरीन पेरियुड का कहना है कि अभ्रक के क्षेत्र में वर्षों से बच्‍चों का शोषण किया जा रहा है, लेकिन दो साल पहले दुनियाभर में सौंदर्य प्रसाधनों में अभ्रक के इस्तेमाल का खुलासा होने के बाद से इस समस्या को दूर करने की प्रयास शुरू किये गये हैं।

     उन्होंने कहा कि एनआरएससी की बाल श्रम से निपटने और अभ्रक क्षेत्रों में रहने के माहौल में सुधार की पांच साल की योजना सम्‍पन्‍न होने के साथ ही ठोस कदम उठाये गये हैं, ताकि बच्‍चे दोबारा खनन का काम ना करें।

    कोडरमा के ढ़ाब में चल रहे स्कूल  के बारे में 13 वर्ष की पूजा गर्व से बताती है कि वह लगभग दो साल पहले अभ्रक खनन का काम छोड़ कर स्‍कूल जाने लगी। ढ़ाब उन 45 गांवों में से है, जहां बीबीए काम कर रहा है।

  नंगे पैरों स्कूल की वर्दी-आधी बाजू की सफेद शर्ट और गहरे नीले रंग की स्कर्ट की पहने  बच्‍ची अति उत्साह से सफेद रंग की इमारत में नीले दरवाजों के बीच अपनी कक्षा बताती है।

  अध्‍यापिका बनने का सपना संजोये पूजा ने कहा, "मुझे स्कूल जाना पसंद है। यहां मेरी सहेलियां हैं। मैं यहां खेलती हूं और पढ़ती हूं। मुझे खुशी है कि बीबीए ने यहां आकर हमारे माता पिता को समझाया कि बच्चों से काम करवाना ठीक नहीं है।"

  "खनन के काम में बड़ा खतरा था। खान के अंदर से ऊपर देखने पर हमें हमेशा खान के धंसने और चट्टाने गिरने का डर बना रहता था।  एक बार मेरे साथ भी दुर्घटना घटी, लेकिन मेरी सहेली मुन्नी की मदद से मैं जैसे-तैसे बचकर बाहर निकल गई, हालांकि मुझे काफी चोट लगी थी।"

      

   "कंपनियों के प्रयास"

     पूजा भाग्यशाली थी, जो उसकी जान बच गई। भारत से अभ्रक खरीदने वाली कई और कंपनियां बच्चों को खानों में काम करने से रोकने और उन्‍हें अन्‍य विकल्प उपलब्‍ध कराने का प्रयास कर रही हैं।

  जर्मनी की दवा कंपनी मर्क कगा को 2008 में पता चला कि उनकी आपूर्ति के लिए बच्चों से अभ्रक एकत्रित करवाया जाता है, तो उसने अपने कुछ आपूर्तिकर्ताओं से अभ्रक लेना बंद कर दिया और अब वह केवल झारखंड और ऐसी वैध खानों से अभ्रक खरीदती है, जो बच्चों से मजदूरी नहीं करवाते हैं।

  कंपनी ने अपनी वेबसाइट पर एक बयान में कहा कि उसने अमेरिका और ब्राजील में भी अभ्रक के स्‍त्रोत स्‍थापित किये हैं और वह कृत्रिम अभ्रक आधारित कुछ पिगमेंट का उत्पादन कर रही है।

 एक अन्य प्रमुख खरीदार, चीन की पिगमेंट निर्माता फ़ुज़ियान कुनकाई  मटेरियल टैक्‍नोलॉजी कंपनी लिमिटेड  ने कहा कि लेखा परीक्षा में उनकी आपूर्ति श्रृंखला में बाल श्रम के कोई सबूत नहीं मिले, हालांकि उन्‍होंने स्वीकार किया कि यह एक जटिल चुनौती है।

   

  फ़ुज़ियान कुनकाई के प्रवक्ता ने कहा कि वह भारत में अपनी खुद की कंपनी स्थापित कर रही है, ताकि सीधे वहीं से अभ्रक खरीदा जाये और खानों का लेखा परीक्षा भी किया जा सके।

  यह कंपनी बाल अधिकार समूह- टेरे डे होम्‍स के  साथ मिलकर काम कर रही है और झारखंड के कोडरमा और गिरिडीह जिलों में बाल श्रम से 10,000 बच्चों को बचाने के कार्यक्रम के लिये निधि भी उपलब्‍ध करा रही है।

  प्रवक्ता ने कहा, "हम अकेले कुछ नहीं कर सकते हैं इसलिये साझा महत्वाकांक्षा तक पहुंचने के लिए हम मिलकर काम करना चाहते हैं। अभ्रक की आपूर्ति श्रृंखला में कोई बाल श्रम नहीं होना चाहिये।"

   बाल अधिकारों के हिमायतियों का मानना है अभ्रक खरीदने वाली कंपनियां सामुदायिक पहल के लिये धन देने को तैयार हैं। ऐसे में इस उद्योग को वैध बनाने से अभ्रक की काला बाजारी कम होगी तथा बाल श्रम की समस्‍या से निपटने के साथ ही स्वास्थ्य और सुरक्षा मानकों में सुधार करने में मदद मिलेगी।

  हालांकि पर्यावरणविद इन खानों को दोबारा खोलने का स्वागत नहीं करेंगे। कई खानें अब वन संरक्षित भूमि में हैं और उन्‍हे कानूनी रूप से संचालित करने की मंजूरी नहीं मिल पायेगी।

     राजस्थान में खान श्रम संरक्षण अभियान के सेनगुप्ता ने कहा कि बाल श्रम को सताप्‍त करने की दिशा में पहला कदम यह होना चाहिये कि सभी खानों में एक संचालक हो और वह मजदूरों की सुरक्षा तथा आय एवं बच्‍चों से काम न करवाना सुनिश्चित करने के लिए राज्य को रिपोर्ट भेजे।

   उन्होंने कहा, ”कई मामलों में बच्चों को मजबूरन काम करना पड़ता है, क्योंकि उनके माता-पिता को ठीक तरह से भुगतान नहीं किया जाता है या पिता बीमार है और उनकी स्वास्थ्य देखभाल का कोई अन्‍य जरिया नहीं है।"

    "अगर प्रत्‍येक खदान में संचालक होंगे, तो हम लम्‍बे समय तक बाल श्रम पर रोक लगा सकेंगे।" कानूनी तौर पर चल रही कुछ खानों ने बाल श्रम की समस्‍या से निपटने में कामयाबी हासिल की है।

     आंध्र प्रदेश में तालूपुर की श्री वेंकट कनकदुर्गा और उमा माहेश्वरी अभ्रक खदानें क्षेत्र की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी लाइसेंस धारक खानों में से हैं और खान के पर्यवेक्षक सैयद इस्माइल ने बताया कि अब इन खानों में बच्चे काम नहीं करते हैं।

  पांच साल की उम्र से इन खानों के आस पास रहने और यहां काम करने वाले इस्माइल ने कहा, "इन इलाकों में हमेशा से पूरा का पूरा परिवार परंपरागत रूप से अभ्रक का काम करता है। मेरे पिता एक खदान में काम करते थे और हम वहां जाया करते थे।"

  "पिछले वर्षों में स्कूलों तक पंहुच की वजह से बच्चे अब खानों में काम नहीं करते हैं। अब यहां पर बच्‍चे कहते हैं एम फॉर माइका।"

     कार्यकर्ताओं को आशा हैं कि अभ्रक उद्योग में सुधार के नये प्रयासों से बच्चों की पीढ़ियों को मदद मिलेगी। हालांकि अपने सबसे छोटे बेटे मदन को खो चुके प्रताप के लिए बहुत देर हो चुकी है।

   अंतिम बार उसने मदन को अप्रैल में देखा जब वह किशोर खेती और मवेशियों को छोड़कर नये जीवन की तलाश में गांव से निकला था। वह  एक व्यापारी बन कर घर लौटना चाहता था।

  प्रताप ने कहा, "उसने मुझे कहा था कि वह अपने जीवन में कुछ करने के लिए जा रहा है और मैं उसके लिए खुश था, इसलिये मैंने उसे जाने दिया। मुझे क्‍या पता था कि इस काम से उसकी मौत हो जाएगी?" 

(अतिरिक्‍त रिपोर्टिंग-जतीन्‍द्र दास, संपादन-बेलिंडा गोल्‍डस्मिथ; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org) 

Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.

-->