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फीचर-क्याै पर्यावरणीय स्वबच्छभता कपास के खेतों से दासता समाप्तद करने में मददगार हो सकती है?

by Belinda Goldsmith | @BeeGoldsmith | Thomson Reuters Foundation
Friday, 10 February 2017 00:01 GMT

Woman farmer Kanchen Kanjarya participates in a training session in Mayapur village in the Indian state of Gujarat on Feb. 1, 2017, to learn about the best ways to pick cotton as part of an initiative to boost farmers’ income and tackle child and forced labour in the cotton industry. Thomson Reuters Foundation/Belinda Goldsmith

Image Caption and Rights Information

-    बेलिंडा गोल्‍डस्मिथ

मायापुर, 10 फरवरी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - मोटे दस्ताने पहने और शॉल से चेहरे को ढ़के हुये कंचन कंजारिया गुजरात के मायापुर में अपने छोटे से खेत में तपती दोपहर में कपास चुनने में व्‍यस्‍त है।

   परिधान कारखानों को पश्चिमी ब्रांडों के कपड़े बनाने के लिए कपास की आपूर्ति करने वाले लाखों छोटे- छोटे खेतों में काम करने वालों में से एक 42 साल की कंजारिया अपने छह एकड़ के भूखंड पर रोजाना आठ घंटे काम करती है।

    लेकिन दिन लंबे होने और तापमान 35 डिग्री सेल्सियस तक पंहुचने के बावजूद कंजारिया जैसे कुछ किसान खुश हैं, क्‍योंकि उन्‍हें कम पानी और रसायन का उपयोग कर वहनीय कपास पैदा करने के लिये प्रशिक्षण दिया जा रहा है, जिससे उनका मुनाफा बढ़ रहा है।  

    जबरन मजदूरी और बाल मजदूरों से काम करवाने तथा पर्यावरण प्रदूषित करने के लिए वैश्विक कपास उद्योग के जांच के दायरे में आने के चलते फैशन के अग्रणी प्राकृतिक रेशे और इसकी जटिल आपूर्ति श्रृंखला में सुधार लाने के लिये कई पश्चिमी कंपनियों ने किसानों के साथ मिलकर काम करना शुरू कर दिया है।

       मायापुर के छोटे, धूल भरे गांव में अपने नए शौचालय और फुहारे को दिखाते हुये घर के बाहर खड़ी कंजारिया ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "अतिरिक्त पैसा होने से हम इसे अपने बच्चों की शिक्षा में निवेश कर सकते हैं, उपकरण खरीद सकते हैं और हमारे घरों की मरम्मत करवा सकते हैं।"

    "मैंने एक ट्रैक्टर और अपने बेटे के नौकरी पर जाने के लिए एक मोटरसाइकिल भी खरीदी है। मेरी तीन बेटियों में से दो शिक्षिकाएं हैं। यह पूरे परिवार के लिए अच्छा है और मेरे बच्चों का भविष्य सुरक्षित है।"

   देश के सबसे बड़े कपास और बिनौला उत्पादक राज्य- गुजरात की 1,250 महिला किसानों में से एक कंजारिया कंपनियों के नेतृत्व में की जा रही छोटी- छोटी पहलों में शामिल होकर पर्यावरणीय समस्याओं से निपटने और बाल श्रम के चक्र को तोड़ने में मददगार साबित हो रही हैं।

     पिछले तीन सालों से इन महिला किसानों की महीने में दो बार कक्षा लगती है और उन्‍हें खेत में प्रशिक्षण दिया जाता है। इस दौरान उन्‍हें कपास की पैदावार और आय बढ़ाने के लिए तैयार किये गये पानी की क्षमता, प्राकृतिक कीटनाशक और मृदा स्वास्थ्य जैसी वहनीय खेती के तरीकों के बारे में बताया जाता है।

    सामाजिक उद्यम कॉटन कनेक्‍ट और भारत की महिला स्व रोजगार एसोसिएशन द्वारा शुरू की गई तथा ब्रिटेन के बजट रिटेलर प्राइमार्क द्वारा वित्त पोषित इस पायलट योजना के संस्थापकों का कहना है कि मुनाफा दो गुना से अधिक हो गया है और छह साल में इससे 10,000 अधिक किसान जुड़ रहे हैं।

   "स्थानीय स्‍त्रोत"

     वैश्विक खुदरा कंपनी सी एंड ए से सम्बंधित (और तस्करी के मुद्दे पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन का एक साझेदार), सी एंड ए फाउंडेशन भारत में विभिन्न समूहों के साथ मिलकर 25,000 किसानों की जैविक कपास की दिशा में आगे बढ़ने में मदद कर रहा है।

  और 2005 में गठित लाभ निरपेक्ष संस्‍था- बेटर कॉटन इनिशिएटिव के आईकेइए, एच एंड एम, बरबेरी और एडिडास जैसे खुदरा विक्रेताओं सहित करीब 1,000 सदस्य हैं। यह कपास के खेतों में ईमानदारी से कार्य करने और भूमि, रसायन और पानी का किफायती उपयोग करने के लिए प्रतिबद्ध है।  

     सामाजिक और आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिए सीधे किसानों के साथ काम करने के लिए 2009 में गठित कॉटन कनेक्‍ट की मुख्य कार्यकारी अधिकारी एलिसन वार्ड ने कहा, "हम देख रहे हैं कि अधिक से अधिक कंपनियां कपास उत्पादन के क्षेत्र में जुड़ रही हैं।"

  उन्‍होंने कहा, "दुनिया बदल रही है और यह बदलाव कहीं अधिक स्थानीय स्‍त्रोत से शुरू हो रहा है, लेकिन आपूर्ति श्रृंखला में मध्‍य स्‍तर तक  पहुंचना असल चुनौती है।"

   वार्ड ने कहा कि विश्व स्तर पर केवल 10-12 प्रतिशत कपास वहनीय है और खेती के तरीकों में बदलाव लाने में अभी और समय लगेगा एवं प्रयास तथा निवेश की आवश्‍यकता होगी, जिससे मुनाफा बढ़ेगा और गुलामी से ग्रस्‍त इस फसल में श्रमिकों के उत्‍पीड़न से निपटा जा सकेगा।

  उद्योग विशेषज्ञों का कहना है कि कपास की आपूर्ति श्रृंखला को तोड़ना सबसे कठिन है, क्‍योंकि इसमें खेत से स्टोर तक- बीज उत्पादन, कपास पैदा करना, बिनौलों और रेशों को अलग करना, कताई मिल से लेकर परिधान कारखानों तक कई चरण शामिल हैं।

   वैश्विक कपास उद्योग भी विशाल है। अनुमान है कि लगभग 85 देशों के करीबन 25 करोड़ ज्‍यादातर गरीब लोग इस उद्योग से जुड़े हुये हैं। इनमें से लगभग 40 लाख कपास किसान भारत में हैं।  

   अमेरिका के श्रम विभाग की 2016 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि उनके पास आठ देशों में कपास के खेतों में जबरन मजदूरी करवाने के कागजात हैं।  इसमें सरकार के समर्थन से जबरन मजदूरी करवाने के लिये उजबेकिस्तान और तुर्कमेनिस्तान की व्‍यापक निंदा की गई है। इसके अलावा भारत सहित 17 देशों में बाल मजदूरी के प्रचलन की भी आलोचना की गई है।

   चीन के बाद दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक  और अमेरिका तथा पाकिस्तान से अधिक कपास पैदा करने वाला भारत ही एक मात्र ऐसा देश है, जहां बिनौले के उत्‍पादन और कपास की पैदावार दोनों क्षेत्रों में बाल श्रम और जबरन मजदूरी का व्‍यापक प्रचलन है।

    भारतीय समूह ग्‍लोकैल रिसर्च के 2014 के अध्ययन "कॉटन्‍स फॉरगोटन चिल्‍ड्रन" में पाया गया है कि कपास के खेतों में काम करने वाले 14 साल से कम उम्र के बच्चों की संख्या 2010 से दोगुनी बढ़कर दो लाख हो गई है। इसका कारण यह है कि संकर बीज उत्पादन के लिये क्रॉस पोलिनेशन कराने में नन्‍हें हाथ अधिक उपयोगी होते हैं।

  इस समूह के निदेशक दावूलूरी वेंकटेश्‍वरलू ने कहा कि इस वर्ष प्रकाशित होने वाले नए शोध में पता चला है कि इस दिशा में कोई बदलाव नहीं आया है, क्‍योंकि भारत में और अधिक छोटे किसान लाभदायक फसल अपना रहे हैं।

   इसका मतलब है कि बच्‍चों से मजदूरी करवाना जारी रहेगा, क्‍योंकि हाल ही में लागू किये गये कानून के तहत 14 साल से कम उम्र के बच्चे स्‍कूल के बाद अपने पारिवारिक उद्यम में काम कर सकते हैं।                 

 

Women farmers Hira Kanjarya (Left) and Kanchen Kanjarya pose and show their cotton at a field by Mayapur village in the Indian state of Gujarat on Wednesday Feb 1. Photo by Belinda Goldsmith/Thomson Reuters Foundation

  "अभी लम्‍बा रास्‍ता तय करना है"

  पर्याप्त उपाय नहीं करने के लिए राज्य सरकारों को आड़े हाथों लेते हुये वेंकटेश्‍वरलू ने कहा, "गुजरात और राजस्थान के कुछ इलाकों में स्थिति और बिगड़ गयी है और समस्या यह है कि पारिवारिक उद्यम को कैसे परिभाषित किया जाये और क्‍या स्कूल में पंजीकृत बच्चे स्कूल जा रहे हैं।"

   उन्होंने कहा कि बेटर कॉटन इनिशिएटिव और कॉटन कनेक्‍ट जैसे समूहों और इसमें शामिल कंपनियों की पहलें इस क्षेत्र में मददगार साबित हो रही हैं।

  गुजरात के ग्रामीण श्रम उपायुक्त एम सी करीना को विश्‍वास है कि कपास के खेतों से बाल मजदूरी समाप्‍त करने के व्‍यापक अभियान के बाद से राज्‍य में यह उद्योग बाल श्रम से मुक्त हो गया है।

  उन्होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "हम पिछले आठ साल से इस गंभीर विषय पर कार्य कर रहे हैं और हमें विश्‍वास है कि अब एक भी बच्चा कपास के खेतों में काम नहीं कर रहा है।"

   कपास की आपूर्ति श्रृंखला में जटिलता और पारदर्शिता की कमी के कारण अधिकतर अंतरराष्ट्रीय ब्रांड अपनी साख बचाने और नैतिक प्रतिबद्धताओं के कारण इस अभियान से जुड़ रहे हैं।  

   प्राईमार्क की नैतिक व्यापार और पर्यावरणीय वहनीयता निदेशक कैथरीन स्टीवर्ट ने कहा कि उनकी कंपनी ने पारंपरिक कपास के मूल्‍य पर ही कपास उत्पादन के नैतिक और वहनीय तरीके  तलाशना शुरू किया है। जैविक और स्‍वच्‍छ व्‍यापार का अपना मूल्‍य है।

   एसोसिएटेड ब्रिटिश फूड्स का हिस्सा प्राईमार्क 11 देशों में लगभग 335 रूपये में टी-शर्ट जैसे सस्‍ते कपड़े बेचता है और इसलिये हमेशा उस पर यह समझाने का दबाव बना रहता है कि वह श्रमिकों का शोषण किये बिना कैसे इतने सस्ते कपड़े बनाता है।

   स्टीवर्ट ने कहा कि अधिक मात्रा, कम लागत के व्यापार मॉडल के खुदरा विक्रेता आश्‍वस्‍त करते हैं कि आपूर्तिकर्ता कारखानों में कर्मियों के साथ अच्छा व्‍यवहार किया जाता है और उन्‍हें तय न्यूनतम मजदूरी दी जाती है तथा नियमित और अचानक ऑडिट भी किया जाता है। लेकिन खुदरा विक्रेता आपूर्ति श्रृंखला की और जांच करना चाहते हैं।

   उन्‍होंने कहा,"हमने सोचा था कि कृषि उत्पादन की तह तक जाना और फिर आपूर्ति श्रृंखला के शुरू से आखिर तक दोनों सिरों को जोड़ कर कार्य करना आसान होगा।"

  उन्होंने कहा कि गुजरात की पायलट योजना से साबित हो गया है कि पारंपरिक कपास के मूल्‍य पर ही वहनीय कपास का उत्पादन किया जा सकता है, लेकिन प्राईमार्क यह बताने को राजी नहीं कि उन्होंने इसमें कितनी "महत्वपूर्ण" राशि निवेश की है।

    स्टीवर्ट ने कहा, "हम कपास के क्षेत्र में कुछ कार्य करने की कोशिश कर रहे हैं और लोग बारीकी से देख रहे हैं कि हम क्या कर रहे हैं। लेकिन आपको यह तय करना होगा कि आपकी प्राथमिकताएं क्‍या हैं। आप यह सब एक ही बार में नहीं कर सकते हैं।"

    रिस्‍पॉसिंबल सोर्सिंग नेटवर्क की निदेशक और कताई मिलों में काम करने वालों के लिये पहल-यार्न एथिकली एंड सस्‍टेनेबली सोर्स्‍ड (वाईइएसएस) को शुरू करने वाली पेट्रीसिया जुरेविच ने कहा कि कपास की आपूर्ति श्रृंखला में सुधार लाने की पहलों के बावजूद यह कलंकित ही है।

   उन्‍होंने कहा, "इस क्षेत्र में छोटे- छोटे सुधार हो रहे हैं और सबसे अधिक सुधार वहां हो रहे हैं, जहां ब्रांड उत्पादन में शामिल हैं, क्‍योंकि वे शोषण का हिस्‍सा नहीं बनना चाहते हैं। लेकिन अभी एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है।" 

(अतिरिक्‍त रिपोर्टिंग- मुंबई से रोली श्रीवास्‍तव, रिपोर्टिंग- बेलिंडा गोल्‍डस्मिथ, संपादन- रोस रसल; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org) 

Women farmers Kanchen Kanjarya and Hira Kanjarya picking cotton in a field by Mayapur village in the Indian state of Gujarat on Wednesday Feb 1. Photo by Belinda Goldsmith/Thomson Reuters Foundation

"LONG WAY TO GO"

"In pockets of Gujarat and Rajasthan the situation has deteriorated and the issue is what defines a family enterprise and whether children registered for school do attend," said Venkateswarlu, blasting state governments for not doing enough.

He said interventions by such groups as the Better Cotton Initiative and CottonConnect involving companies were helping.

M. C. Karina, deputy rural labour commissioner for Gujarat, was confident the industry in Gujarat was free of child labour after a major drive to clean up cottonseed farms.

"We've been working on this concern for the last eight years and are now sure that not a single child is working on the cottonseed farms," he told the Thomson Reuters Foundation.

With the complexity and lack of transparency in the cotton supply chain, international brands are getting more involved for the sake of their reputation and to meet ethical commitments.

Katharine Stewart, Primark's ethical trade and environmental sustainability director, said her company set out to find an ethical and sustainable way to produce cotton at the same price as conventional cotton. Organic and Fairtrade has a premium.

Primark, part of Associated British Foods, sells low-priced clothes such as $5 T-shirts in 11 countries, and is constantly under pressure to explain how it makes clothes so cheaply without exploiting workers.

Stewart said the retailer, with a high volume, low cost business model, ensured workers were well treated in supplier factories and paid at least the minimum wage with regular and surprise audits but wanted to dig further into the supply chain.

"We thought it would be easier to go bottom up when you are talking about agricultural production and then work from both ends of the supply chain to join it all together," she said.

She said the Gujarat pilot proved sustainable cotton could be produced at the same price as conventional cotton but Primark would not give figures for the "significant" amount invested.

"We are looking and trying to do something about cotton and people are watching closely what we are doing," said Stewart. "But you have to pick where you are going to prioritise. You can't do it all at once."

Patricia Jurewicz, director of the Responsible Sourcing Network and creator of initiative Yarn Ethically and Sustainably Sourced (YESS) working in spinning mills, said the cotton supply chain remained tainted despite initiatives to clean it up.

"There are improvements little by little and the most where brands get involved in production as they don't want to be linked to abuse," she said. "But there's a long way to go".

($1 = 0.7997 pounds) (Additional reporting by Roli Srivastava in Mumbai, @BeeGoldsmith, Editing by Ros Russell.; Please credit the Thomson Reuters Foundation, the charitable arm of Thomson Reuters, that covers humanitarian news, women's rights, trafficking, property rights and climate change. Visit http://news.trust.org)

Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.

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