चेन्नई, 27 फरवरी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - संयुक्त राष्ट्र की एक बाल एजेंसी की रिपोर्ट और कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में बड़ती संख्या में बच्चों से अचार से लेकर पटाखे बनाने, पर्यटन के क्षेत्र में और निर्माण स्थलों पर काम करवाया जा रहा है, इनमें से कई बच्चे नौ साल से भी कम उम्र के हैं।
भारतीय जनगणना के नवीनतम आंकड़ों पर आधारित यूनिसेफ की बाल श्रमिकों की स्थिति पर एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2011 में पांच से नौ साल के बाल मजदूरों का अनुपात 24.8 प्रतिशत तक पहुंच गया, जो 2001 में 14.6 प्रतिशत था।
उसी दशक में शहरी बाल श्रमिकों की आबादी भी 2.1 प्रतिशत से बढ़कर 2.9 हो गई थी।
हालांकि देश भर में 2011 में बाल श्रमिकों की संख्या घटकर 3.9 प्रतिशत रह गई, जो 2001 में 5 प्रतिशत थी, लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि यह समस्या काफी बड़ी है, क्योंकि इसमें घरों में काम करने वाले बच्चों के आंकड़े शामिल नहीं हैं।
लाभ निरपेक्ष संस्था- तमिलनाडु चाइल्ड राइट्स ऑब्जरवेटरी के एंड्रयू सेसूराज ने कहा कि उपलब्ध जानकारी में अधिकतर केवल संगठित क्षेत्र में काम करने वाले बच्चे हैं।
सेसूराज ने कहा, "घरेलू काम करने वाली लड़कियों, कृषि क्षेत्र में काम करने वाले और अपने माता पिता के साथ काम कर रहे बच्चों को इसमें बिलकुल शामिल नहीं किया गया है। हमें जो नजर आ रहा है वह समस्या का अंशमात्र है।"
इस महीने प्रकाशित हुई रिपोर्ट की सह लेखिका हेलेन आर सेकर ने कहा कि अधिकतर बाल मजदूर प्रवासी होते हैं, जिनके घरों का कोई पता नहीं होता है और उन्हें किसी भी सरकारी सूची में शामिल नहीं किया जाता है।
सेकर ने कहा, "जांचकर्ता जब आंकड़े एकत्रित करने घरों में जाते हैं तो उस समय उन्हें ये बच्चे वहां नहीं मिलते हैं।"
कार्यकर्ताओं का कहना है कि कृषि लाभ में गिरावट, भूमिहीनता और काम के अवसरों की कमी के कारण भी ग्रामीण परिवार अपने बच्चों को खतरे में ड़ालकर शहरों में जाने को मजबूर हैं।
विश्लेषण से पता चलता है कि हालांकि शिक्षा नीतियों के कारण साक्षर बच्चों की संख्या बढ़ी है, लेकिन अपर्याप्त पारिवारिक आय की पूर्ति के लिये बच्चों को अभी भी मजबूरन काम करना पड़ता है।
लाभ निरपेक्ष संस्था- चाइल्ड राइट्स एंड यू की कोमल गनोत्रा ने बताया कि अधिक से अधिक काम भारतीय घरों से करने के लिये दिया जा रहा है और इसके लिये मजदूरी प्रति नग के हिसाब से दी जा रही है।
गनोत्रा ने कहा, "इसलिये अधिक कमाने के लालच में माता-पिता अपने बच्चों को इस रोजगार में लगा देते हैं। स्कूल छोड़ कर अपने परिजनों के साथ काम करने वाले बच्चों की संख्या बढ़ रही है।"
रिपोर्ट में कढ़ाई करने, जूते, कालीन, कपड़ा, चमड़ा और ताला बनाने वाले उद्योगों का हवाला दिया गया है, जहां घरेलू आय में वृद्धि के लिये "अदृश्य बच्चे" अपने माता-पिता के साथ काम करते हैं।
वी.वी. गिरि राष्ट्रीय श्रम संस्थान के साथ सहयोग से तैयार की गई रिपोर्ट में बाल मजदूरी के 32 प्रमुख केंद्रों को चिन्हीत किया गया है और उस सूची में सबसे ऊपर हैदराबाद और जालोर का स्थान है, जहां क्रमश: 67,366 और 50,440 बाल श्रमिक हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि हालांकि प्रतिवर्ष बाल श्रमिकों की संख्या 2 प्रतिशत की दर से कम हो रही है, लेकिन इस दर से भारत मे बाल श्रम को पूरी तरह से समाप्त करने में लगभग 200 साल लग जायेंगे।
रिपोर्ट में बाल श्रम के मामलों को कम करने के लिए प्रवासी बच्चों के लिये बेहतर शिक्षा नीतियों सहित स्कूली शिक्षा नीतियों के बेहतर कार्यान्वयन का आग्रह किया गया है।
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की प्रमुख स्तुति कक्कड़ ने कहा, "हम इस रिपोर्ट का विश्लेषण कर रहे हैं और उसी के अनुसार सुझाव देंगे।"
(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- एड अपराइट; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)
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