- नीता भल्ला
नई दिल्ली, 13 अप्रैल (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - पिछले साल अगस्त की शांत दोपहर में 11 साल का पीयूष शर्मा पूर्वी भारत के हटिया में अपने घर के बाहर से खेलते हुये लापता हो गया था।
बड़ी-बड़ी भूरी आंखों और सम्मोहक मुस्कान वाला वह दुबला पतला छोटा सा लड़का उस समय स्कूल से लौटा ही था और उसने अपनी मां से कहा था कि वह भोजन करने से पहले बाहर खेलना चाहता है।
15 मिनट बाद जब उसकी मां ने उसे बुलाया तो वह वहां नहीं था।
झारखंड के हटिया से फोन पर पीयूष की मां 35 साल की पिंकी शर्मा ने कहा," पिछले नौ महीने से मैंने उसे नहीं देखा है। उस समय वह स्कूल की यूनिफार्म- गुलाबी शर्ट और नीला शॉर्ट्स पहने हुये था। उसे जरूर कोई उठाकर ले गया है। वह हमेशा घर के आस-पास ही खेलता था।"
"मेरे पति ने उसे कई जगह ढूंढ़ा, लेकिन किसी को भी उसके बारे में कुछ नहीं पता था। परंतु मैं अपनी अंतिम सांस तक उसकी तलाश करती रहूंगी।"
पीयूष सरकार के ट्रैक चाइल्ड पोर्टल पर जनवरी 2012 से मार्च 2017 तक लापता के रूप में दर्ज लगभग ढ़ाई लाख बच्चों में से एक है, यानि हर घंटे में पांच बच्चे गायब होते हैं।
लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि ये आंकड़े बहुत कम हैं, क्योंकि कई बार माता-पिता या पुलिस द्वारा मामले दर्ज नहीं करवाये जाते हैं और बच्चों को भागा हुआ बताकर मामले को रफा दफा कर दिया जाता है।
अधिकतर बच्चों को गुलामी करवाने के लिये बेचा जाता है जहां देश में व्यापक गरीबी है और बाल श्रम पर प्रतिबंध के बावजूद बच्चों से काम करवाना सामान्य बात है।
ट्रैक चाइल्ड के आंकड़ें दर्शाते हैं कि इन बच्चों की बेहतर सुरक्षा और उन्हें तलाशने की कई पहलों के बावजूद लगभग 73,000 यानी 30 प्रतिशत बच्चे अभी भी लापता हैं।
कार्यकर्ताओं का कहना है कि पुलिस और बाल कल्याण तथा सुरक्षा अधिकारियों में प्रशिक्षण की कमी, विभिन्न राज्यों की एजेंसियों के बीच समन्वय ना होने एवं बड़े पैमाने पर सार्वजनिक उदासीनता "खोई पीढ़ी" का पता लगाने के प्रयास में बाधा है।
"एक तो गरीबी उस पर गुलामी"
भारत में बच्चों का लापता होना इतनी सामान्य घटना है कि इनके बारे में सूचना देश के दैनिक समाचार पत्रों के वर्गीकृत खंड़ में निविदा सूचना और नौकरी रिक्तियों के साथ छापी जाती हैं। इसमें बच्चे के विवरण और संपर्क नंबर के साथ उनका धुंधला ब्लैक एंड व्हाइट फोटो होता है।
लाल स्वेटर और काली पतलून पहने 10 साल के पिंटू को आखरी बार दिल्ली रेलवे स्टेशन पर देखा गया था। दक्षिणी दिल्ली में अपने घर के बाहर से गायब हुई 16 साल की शिवानी नीले रंग की जींस पहने थी। सफ़ेद सलवार कमीज में 13 वर्ष की पूजा को आखरी बार दिल्ली के एक बाजार में देखा गया था।
प्रत्येक सूचना की अंतिम पंक्ति भी एक जैसी ही होती है: इस लापता लड़की/लड़के का पता लगाने के लिए स्थानीय पुलिस ने ईमानदारी से प्रयास किए गए हैं, लेकिन अभी तक कोई सुराग नहीं मिला है।
अभियान चलाने वालों का कहना है कि इनमें से कुछ पीडि़त बच्चे भगोडे होते हैं। कुछ का अपहरण किया गया होता है। कुछ बच्चे गरीब परिवारों के होते हैं, जिन्हें तस्कर अच्छी नौकरी दिलाने का लालच देते हैं। कुछ लड़कियां प्रेम में पड़ जाती हैं, जिन्हें उनके प्रेमी बरगला कर घर से भगा ले जाते हैं और वेश्यावृत्ति के लिये उन्हें बेच देते हैं।
दिल्ली की एक तस्कारी रोधी धर्मार्थ संस्था- शक्ति वाहिनी के ऋषि कांत का कहना है कि यह देखा गया है कि लापता बच्चों में से 70 प्रतिशत तस्करी और गुलामी के शिकार हैं।
तस्करी पीड़ितों को छुड़ाने में मदद करने वाले कांत ने कहा, "ज्यादातर बच्चों की तस्करी ऐसे संगठित गिरोहों द्वारा की जाती हैं, जो पूरी प्रणाली के बारे में जानते हैं। वे जानते हैं कि कैसे उन्हें लुभाया, एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया और नियोक्ताओं को बेचा जाता है।"
"अंत में वे वेश्यालयों, धनी लोगों के घरों और छोटे कारखानों में कैद होकर रह जाते हैं। जिसके कारण उनका पता लगाना या उनके लिये उन स्थानों से बच निकलना मुश्किल होता है।"
2011 की जनगणना के अनुसार विश्व में भारत सबसे अधिक बच्चों की आबादी वाले देशों में से एक है। देश की 120 करोड़ की आबादी में से 40 प्रतिशत से अधिक लोग 18 वर्ष से कम उम्र के हैं।
2016 की विश्व बैंक और यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले दो दशकों में हुई आर्थिक वृद्धि के कारण लाखों लोग गरीबी से बाहर आ चुके हैं, फिर भी दुनिया के 38 करोड़ 50 लाख सबसे गरीब बच्चों में से 30 प्रतिशत से अधिक बच्चे भारत में दयनीय स्थितियों में पैदा हो रहे हैं। वे तस्करों के लिए आसान शिकार होते हैं, जिन्हें अच्छी नौकरी दिलाने और बेहतर जीवन का झांसा दिया जाता है, लेकिन अक्सर उन्हें जबरन मजदूरी करने के लिये मजबूर किया जाता है।
2016 की विश्व बैंक और यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में पिछले दो दशकों में हुई आर्थिक वृद्धि के कारण लाखों लोग गरीबी से बाहर आ चुके हैं, फिर भी कई बच्चे यहां दयनीय स्थितियों में पैदा हो रहे हैं। दुनिया के 38 करोड़ 50 लाख सबसे गरीब बच्चों में से 30 प्रतिशत भारत में हैं। ये बच्चे तस्करों के लिए आसान शिकार होते हैं, जिन्हें अच्छी नौकरी दिलाने और बेहतर जीवन का झांसा दिया जाता है, लेकिन अक्सर उन्हें जबरन मजदूरी करने के लिये मजबूर किया जाता है।
हालांकि कुछ बच्चे उन स्थानों से भागने में सफल हो जाते हैं या कार्यकर्ताओं अथवा स्थानीय निवासियों द्वारा दिये गये सुराग पर पुलिस छापेमारी में छुड़ा लिये जाते हैं, जबकि अन्य इतने भाग्यशाली नहीं होते हैं और वर्षों तक वहीं फंसे रहते हैं।
मुंबई के टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में चेयर प्रोफेसर और मानव तस्करी विषय पर अनुसंधान समन्वयक पी. एम. नायर ने कहा, "समस्या यह है कि कई जगहों पर पुलिस प्रशिक्षित और लापता बच्चों का पंजीकरण करने तथा उनका पता लगाने के मौजूदा तंत्र से जुड़ी हुयी नहीं हैं।"
"वे अक्सर इसे अपराध के तौर पर दर्ज करने और जांच करने की बजाय लापता बच्चों और तस्करी के बीच संबंध नहीं मानते हैं और बच्चे को भगोड़ा करार दे कर मामले को खारिज कर देते हैं।"
उन्होंने कहा कि पुलिस, सरकारी अधिकारियों और कार्यकर्ताओं के बीच भी बहुत कम संपर्क होता है, जिसके कारण बच्चे के लापता होने के स्थान और उसे जहां ले जाया गया हो उस संभावित जगह के अधिकारियों के बीच समन्वय होने में कठिनाई आती है।
"सामान्य नज़रों से ओझल"
यह निर्धारित करने के लिए कि लापता बच्चों की संख्या बढ़ रही है या नहीं हर साल के आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन 2015 के सरकार के अपराध के आंकड़ों से पता चलता है कि पिछले पांच वर्ष में बच्चों के अपहरण के मामले लगभग 60 प्रतिशत बढ़े हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में इसी अवधि के दौरान वेश्यावृत्ति के लिये तस्करी और नाबालिगों की खरीद- फरोख्त जैसे अपराधों में बढ़ोतरी दर्शाई गयी है।
देश का पहला व्यापक मानव-तस्करी रोधी कानून का मसौदा तैयार किया जा रहा है, जिसमें राज्यों के बीच समन्वय के लिए विशेष जांच एजेंसी का प्रावधान है।
लापता बच्चों के पंजीकरण के लिए दो आधिकारिक वेब पोर्टल तैयार किए गए हैं। वेबसाइट- "खोया पाया" जनता के लिए, जबकि "ट्रैक चाइल्ड" पुलिस, सरकार और धर्मार्थ संस्थाओं के बीच बेहतर समन्वय के लिए है।
लगभग एक दशक से राष्ट्रीय स्तर पर टोल फ्री हेल्पलाइन-चाइल्ड लाइन 24 घंटे उपलब्ध है। 2015-16 में इस पर 90 लाख से अधिक फोन कॉल आये जिनमें से 25,000 से ज्यादा लापता बच्चों के बारे में थे।
सरकार ने देश के विशाल रेलवे नेटवर्क पर विभिन्न जन जागरूकता अभियान भी शुरू किए हैं, क्योंकि तस्कर मुख्य रूप से परिवहन के लिये रेल का ही इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा समय-समय पर "ऑपरेशन स्माइल" नाम से पुलिस भी आश्रय स्थलों, रेल और बस स्टेशनों तथा सड़कों से लापता बच्चों को तलाशने का अभियान छेड़ती है।
नाम न छापने की शर्त पर दिल्ली की अपराध शाखा के एक पुलिस अधिकारी ने कहा, "पिछले कुछ सालों में लापता बच्चों को ढूंढने के लिए पुलिस ने निश्चित रूप अधिक प्रयास किये हैं।"
"देश के विभिन्न हिस्सों में ऑपरेशन स्माइल जैसी पहलों से सैकड़ों लापता बच्चों को तलाशने में मदद मिली है।"
लेकिन कार्यकर्ताओं का कहना है कि कुछ लापता बच्चों से लोगों की आंखों के सामने ही गुलामी करवायी जा रही है इसलिये अधिक जन जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है।
वे शहरों में ट्रैफिक लाइटों पर भीख मांगने के लिये कारों की खिड़कियां खटखटाते हैं या सड़क किनारे बने ढ़ाबों में बर्तन धोते अथवा तपती गर्मी में कपास, चावल और मक्का के खेतों में काम करते हैं, जहां उन्हें जहरीले कीटनाशकों से खतरा होता है।
अमीर मध्यवर्गीय घरों में वे साफ सफाई और बच्चों की देखभाल करते हैं, कभी- कभी तो ये बच्चे उनसे भी बड़ी उम्र के होते हैं। वेश्यलयों में वे अपने चेहरे पर मेकअप पोत कर ग्राहकों का इंतजार करते हैं, जहां एक के बाद एक अजनबी उनके साथ दुष्कर्म करते हैं।
पूर्वोत्तर भारत के जलपाईगुड़ी की एक तस्करी रोधी धर्मार्थ संस्था- दुआर्स एक्सप्रेसमेल के राजू नेपाली ने कहा, "इन में से कुछ बच्चे खुले आम घूमते हैं। उदाहरण के लिए पिछले सप्ताह हमने एक ऐसे लापता लड़के को ढूंढा, जिसकी तस्करी कर उसे दिल्ली में भीख मांगने को मजबूर किया गया था।"
"कोई भी नहीं- ना तो पुलिस और ना ही जनता इन बच्चों के बारे में पूछताछ करने की कोशिश करते हैं। शायद वे गरीब हैं इसलिए उनका ऐसे घूमना सामान्य लगता है। इसलिए हम पूछने की कोशिश नहीं करते कि वे कौन हैं, वे सड़को पर क्यों हैं और वे किन के साथ हैं।"
(रिपोर्टिंग- नीता भल्ला, संपादन- बेलिंडा गोल्डस्मिथ; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)
Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.