- रोली श्रीवास्तव
सूरत, 19 अप्रैल (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - उधिया बेहरा सूरत के एक कपड़ा केंद्र में बगैर खिड़की वाले कमरे में बैठा टकटकी बांधे शून्य भाव से छोटे से टेलीविजन को देख रहा था और नीचे से बिजली चालित पावर लूमों के शोर से जमीन हिल रही थी।
हालांकि, बेहरा के लिए ये गली के बाहर लगातार चलने वाले प्रचंड पावर लूमों के शोर से दूर 35 अन्य लोगों से साझा किये इस कमरे में देर शाम के शांति के क्षण थे।
कमरे में आती तेज आवाज के बीच जोर से बोलते हुये 45 साल के बेहरा ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "मैं पूरा दिन 12 पावर लूम चलाता हूं और शोर से मुझे बहुत परेशानी होती है। मेरा सिर दर्द होता है। यहां थोड़ी शांति है।"
लगभग 80 लाख लोग पश्चिमी शहर सूरत में छह लाख पावर लूमों में सुनने की क्षमता और स्वास्थ्य को हानि पंहुचाने वाले माहौल में काम करते हैं। इनमें से ज्यादातर बेहरा जैसे पूर्वी राज्य ओडिशा के प्रवासी श्रमिक हैं।
श्रमिकों का कहना है कि उनके गृह नगर में रोजगार की कमी के कारण वे यहां काम करते हैं, हालांकि कार्यकर्ताओं को संदेह है कि कुछ लोगों को देशभर से तस्करी कर यहां लाया गया है।
ओडिशा में धर्मार्थ संस्था-एड एत एक्शन के प्रवासी अधिकार कार्यकर्ता उमि डैनियल ने कहा, "पुराने श्रमिक नियोक्ता बन जाते हैं। फसल बर्बाद होने और चक्रवाती तूफानों से प्रभावित ये लोग गरीब हैं और इन्हें रोजगार की जरूरत है।"
इनके द्वारा बुना गया कपड़ा टिकाऊ, देखभाल करने में आसान होता है और इसकी लागत भी कम होती है, जिसके कारण भारतीय और अंतरराष्ट्रीय बाजारों में इस कपड़े की लोकप्रियता बढ़ गई है।
भारत प्रति वर्ष छह बिलियन डॉलर मूल्य का सिंथेटिक कपड़ा निर्यात करता है। इस कपड़े का इस्तेमाल दुनिया भर में किया जाता है । "सिलवट-मुक्त" होने के कारण यूरोप और अमेरिका में स्कूल और होटल की वर्दी और बांग्लादेश तथा वियतनाम के उच्च वर्ग के फ़ैशन परिधान केन्द्रों द्वारा उपयोग में लाया जाता है।
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"बहरापन"
भारतीय राष्ट्रीय व्यावसायिक स्वास्थ्य संस्थान के एक अध्ययन के अनुसार कपड़ा बुनने वाले लगभग 102-104 डेसिबल ध्वनि में काम करते हैं, जो कानूनी तौर पर निर्धारित 90 डेसिबल से अधिक है और इससे उनकी श्रवण क्षमता को काफी नुकसान पंहुचने का खतरा होता है।
प्रवासी श्रम अधिकार समूह- आजीविका ब्यूरो के संजय पटेल ने कहा, "यहां 10 से 12 साल तक काम करने वाले लोग ठीक से सुन नहीं पाते हैं। कई लोग 45 साल की उम्र के बाद काम करने में असमर्थ होने पर अपने गांव लौट जाते हैं।"
पटेल ने कहा कि कारखानों की कई इकाइयां कान में लगाने के प्लग जैसी बुनियादी सुरक्षा के दिशानिर्देशों का पालन नहीं करती हैं।
अधिकतर इकाइयां कारखानों के बजाय दुकानों या अन्य प्रतिष्ठानों के तौर पर पंजीकृत होती हैं, जिससे उन्हें शोर के उच्च स्तर में आठ घंटे से अधिक काम करवाने और ओवरटाइम के लिए अतिरिक्त भुगतान न करने की अनुमति होती है।
फिर भी श्रम विभाग और स्थानीय सरकारी अधिकारियों का कहना है कि उन्हें श्रमिकों से शोर-संबंधी कोई शिकायत नहीं मिली है।
इकाइयों की जांच के लिए जिम्मेदार सूरत के नागरिक निकाय में निरीक्षक पी.डी. पटेल ने कहा, "हमें केवल मजदूरी का भुगतान न करने की शिकायतें मिलती हैं जिसका हम निराकरण कर देते हैं।"
पटेल ने कहा कि शोषण के लिए दंड काफी कम है। काम के घंटों या दोपहर के भोजन के लिये छुट्टी नहीं देने के दिशानिर्देशों का उल्लंघन करने के लिये 2016 में लगभग 200 नियोक्ताओं को 25 रुपये से लेकर 750 रुपये तक का जुर्माना लगाया गया था।
"बीमारी और मौत"
सूरत की सड़कों पर मोटर साइकिलों, ट्रकों, वैनों और कारों पर रंगीन कपड़ों को लादकर लाने जाने के दृश्य आम हैं।
लेकिन चमकदार, हलचल भरे बाजारों से कुछ मील दूर श्रमिक कालिख से ढ़के हुए भवनों में रहते हैं, जहां चारों ओर कचरा और गंदगी फैली रहती है।
पोषण और बुनियादी स्वच्छता की कमी, लंबे समय तक काम करने और असुरक्षित यौन आदतों के कारण हजारों लोगों को एचआईवी / एड्स से लेकर तपेदिक जैसी बीमारियां होने का खतरा बना रहता है।
सूरत के एक स्थानीय सरकारी कार्यालय में पिछले दो साल में पावर लूमों के श्रमिकों के परिजनों से 40 से अधिक मौत के मुआवजे के लिये आवेदन प्राप्त हुये हैं।
एक अधिकारी ने कहा, "इन मौतों को प्राकृतिक निधन बताया गया था। मारे गये लोग 40-59 साल के थे।"
सूरत में अधिकारियों ने बताया कि अधिकांश मामलों में ऐसे प्रवासी श्रमिक तपेदिक के मरीज होते हैं, जो जब तक बीमार न हो जाएं तब तक पावर लूमों पर काम करते हैं।
दक्षिण गुजरात विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और कपड़ा उद्योग के विशेषज्ञ गगन साहू ने कहा, "पावर लूम इकाइयों में कोई मौत नहीं हुई है। मजदूरों के अपने घर लौटने पर उनकी मृत्यु होती है।"
"निरंतर बदलते लक्ष्य"
40 वर्षीय वीपरा पाध्याली ने 25 साल पहले जब एक पावर लूम इकाई में काम करना शुरू किया था उस समय वह चार मशीनों पर आसानी से काम करता था।
अब 12 पावर लूमों पर काम करने वाले पाध्याली ने बताया, "लेकिन एक दशक पहले उन्होंने मुझे कहा कि अगर मैं और अधिक मशीन चलाता हूं तो मैं और अधिक कपड़े का उत्पादन करूंगा जिससे अधिक पैसा कमा पाऊंगा। इसलिए मैं यह काम करने के लिये तैयार हो गया था।"
यहां पर पावर लूम के श्रमिकों को एक मीटर कपड़ा तैयार करने के लिए दो रुपये से भी कम मजदूरी दी जाती है। वे एक दिन में लगभग 500 से 600 रुपये कमाते हैं।
ओडिशा से एक अन्य प्रवासी श्रमिक देबाकर बेहरा ने कहा, "जब मैं तीन मशीनों पर काम करता था तो उस समय मुझे 80 पैसे प्रति मीटर के हिसाब से भुगतान किया जाता था, लेकिन मेरी मशीनों को बढ़ा कर छह करने पर उन्होंने यह दर भी कम कर 70 पैसे प्रति मीटर कर दी।"
देबाकर ने यह काम छोड़ दिया और अब वह एक ऑटो रिक्शा चलाता है। लेकिन ज्यादातर हताश लोग अपनी नौकरी पर लगे हुये हैं।
साहू ने कहा, "हमें ऐसे श्रमिक भी मिले जिन्होंने अस्वस्थ दोस्त या रूममेट के स्थान पर लगातार 72 घंटें काम किया। श्रमिकों के पास अपनी मजदूरी तय करने की कोई शक्ति नहीं होती है। उनके भुगतान, काम के समय और रहने की व्यवस्था से समझौता किया जाता है। वे दयनीय जीवन जी रहे हैं।"
अधिकारियों का कहना है कि बगैर शटल के पावर लूम उपलब्ध हैं, जो बहुत कम शोर पैदा करते हैं और इनसे बेहतर गुणवत्ता के कपड़े तैयार होते हैं, लेकिन महंगा होने की वजह से अधिकतर इकाई मालिक ये नहीं खरीद पाते हैं।
पाध्याली का मानना है कि उसके काम की वजह से ही वह बहरा हो गया है और लगातार उसे थकावट की शिकायत रहती है। उसने कहा, "मैं बैठ नहीं सकता हूं, क्योंकि मुझे यह सुनिश्चित करना होता है कि सभी मशीनों पर धागे सीधे रहें, ताकि कपड़े में कोई सिलवट ना पड़ें।"
देवताओं की प्रतिमाओं से घिरे हुए अपने अंधेरे कमरे में बेहरा ने कहा कि वह ईश्वर से रोजाना प्रार्थना करता है कि वह अपने गांव अपने घर में स्वस्थ लौट पाये, ताकि वह इस सुन्न कर देने वाली आवाज से दूर वहां पर कोई रोजगार ढूंढ सके।
(1 डॉलर = 64.295 रुपये)
(रिपोर्टिंग- रोली श्रीवास्तव, संपादन- एड अपराइट; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)
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