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साक्षात्कार- गरीब और बीमार: भारत के वस्त्र श्रमिकों की दुर्दशा बयां करती फिल्मट

Wednesday, 24 May 2017 11:18 GMT

मुंबई, 24 मई (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - बचपन में गुजरात में अपने दादाजी के वस्त्र कारखाने में बिताए समय की स्मृति से प्रेरित होकर फिल्म विषय पढ़ने वाले भारतीय छात्र राहुल जैन ने अपनी पहली डॉक्‍यूमेंटरी फिल्‍म कारखाने के जीवन पर केंद्रित की है।

हालांकि जैन राजनीतिक फिल्म नहीं बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी पुरस्कार-विजेता फिल्‍म "मशीन्‍स" वैश्विक परिधान उद्योग में घिनौनेपन और लोगों की दुर्दशा के चित्रण के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्‍तर पर ध्यान आकर्षित कर रही है।

डॉक्‍यूमेंटरी फिल्‍म को इस महीने कोपेनहेगन फ़ैशन सम्‍मेलन में दिखाया गया, जहां प्रमुख परिधान कंपनियों, धर्मार्थ और नीति निर्माता संस्‍थाओं के प्रमुख नैतिक और सतत फैशन पर चर्चा करने के लिए एकत्रित हुये थे।

फिल्‍म "मशीन्स" में पुरुषों और बच्चों को हानिकारक स्तर के शोर और भयंकर गर्मी में काफी कम मजदूरी पर गुलामों की तरह पारियों में काम करते हुये दिखाया गया है।

प्रतिष्ठित कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट्स के छात्र जैन ने कहा, "मजदूर गरीब थे, बीमार थे और वे बहुत खांसते थे। उन्‍हें सुनाई भी कम देता था।"

श्रमिक जहां काम करते थे वहां  मशीन का शोर फिल्‍म के साउंडट्रैक के समान था।

जैन ने लॉस एंजेल्स से फोन पर थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "मशीनों की आवाज से बचने के लिये मजदूर हेडफ़ोन लगाकर तेज आवाज में संगीत सुनते हैं, लेकिन यह कानों के लिये अधिक नुकसानदायक होता है।"

"सिलिका की धूल और कार्बन कणों के कारण उनके फेफड़े खराब हो जाते हैं।"

दिल्ली में पले बड़े 25 साल के निर्देशक ने इस फिल्‍म के निर्माण में लगे तीन साल में से लगभग छह महीने गुजरात में देश के कपड़ा उद्योग की राजधानी सूरत शहर के एक कारखाने में बिताए।

श्रमिकों ने बताया कि लगभग 12 घंटे की पारी में काम करने पर वे 200 से भी कम रुपये ही कमा पाते हैं।

प्रति दिन 12 घंटे काम करने वाले एक बच्चे का कहना है, "जब मैं काम के लिए कारखाने के द्वार पर पंहुचता हूं तो ऐसा लगता है कि  मुझे यहीं से वापस लौट जाना चाहिये।"

लेकिन यह लड़का कहता है कि वह वहां से नहीं लौटेगा, क्योंकि उसका मानना ​​है कि वयस्कता के मुकाबले इस उम्र में वह ज्‍यादा जल्‍दी से कौशल सीख सकता है।

फिल्म के अंत मे श्रमिक जैन से आठ घंटे की पारी की उनकी मांग उठाने को कहते हैं।

जैन ने कहा कि फिल्‍म "मशीन्‍स" का निर्माण किसी प्रकार के अभियान के लिये नहीं किया  गया था, लेकिन उन्होंने आशा व्‍यक्‍त की कि सरकार वस्त्र उद्योग के कर्मचारियों की मदद के लिए कार्रवाई करेगी।   

"खराब स्‍वास्‍थ्‍य"

लाखों प्रवासी श्रमिक सूरत के कई बुनाई, रंगाई और छपाई कारखानों में काम करते हैं।

शहर में निर्मित परिधान विश्व भर में निर्यात किए जाते हैं, जिनमें उच्च वर्ग के फैशन से लेकर स्कूल यूनिफार्म तक होते हैं।

"मशीन्‍स" को एक कारखाने में फिल्माया गया था, जिसमें बच्चों सहित 15,000 कर्मचारी काम करते थे। उनके कार्यकलापों को कैमरे में कैद किया गया है। कुछ श्रमिक कपड़े के ढेर पर झपकी लेते दिखायी दिये।

फिल्म में बातचीत कर रहे श्रमिक सावधानी से अपने जीवन के बारे में बताते हुये नजर आते हैं। एक श्रमिक ने बताया कि 1,600  किलोमीटर दूर से वह कारखाने में काम करने के लिए आया था, लेकिन उसने कहा कि उनका शोषण नहीं किया गया और वह अपनी पसंद से काम करता है।

जैन ने कहा कि कारखानों में काम करने से श्रमिकों का शरीर कमजोर पड़ जाता है और वे बीमारियों के शिकार हो जाते हैं इसलिये अधिकतर मजदूर 50 साल की उम्र में ही काम करना छोड़ रहे हैं।

उन्होंने कहा कि श्रमिकों को मल्‍टी विटामिन और विटामिन डी की गोलियों सहित दवाईयां देने के लिए एक डॉक्‍टर सप्ताह में दो बार कारखाने में आता हैं।

इस वर्ष के सनडेन्स फिल्मोत्‍सव में छायांकन के लिए पुरस्‍कृत फिल्‍म "मशीन्‍स" को ब्रिटेन में रिलीज किया जा चुका है और इस साल भारत में इसको प्रदर्शित किया जायेगा।  

जैन ने कहा कि देश में सबसे अधिक कारखानों वाले कस्बों में इस फिल्‍म को दिखाने की  योजना है।

उन्होंने कहा, "मैं उम्मीद करता हूं कि इस फिल्‍म के जरिये सरकार को वह सच्‍चाई नजर आयेगी जो वह देखना नहीं चाहती है।"   

(रिपोर्टिंग- रोली श्रीवास्‍तव, संपादन- एम्‍मा बाथा; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

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