चेन्नई, 6 जून (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारत सरकार की 2030 तक एक करोड़ 80 लाख से अधिक बंधुआ मजदूरों को बचाने की योजना में कोष की कमी से देरी हुई है। उन्होंने देश में मानव तस्करी के सबसे प्रचलित में से एक इस रूप को समाप्त करने के लिए सख्ती से कानून लागू करने का भी आग्रह किया।
अभियान चलाने वालों का कहना है कि भारत सरकार की बंधुआ मजदूरों की सहायता के लिए घोषित योजना के एक साल के बाद भी धन उपलब्ध नहीं होने के कारण कई बचाव कार्रवाई स्थगित की गई है। इस योजना में इन शोषित श्रमिकों की मुआवजा राशि बढ़ाकर पांच गुना की गई है।
स्वदेशी लोगों के कल्याण का नेटवर्क, लाभ निरपेक्ष संस्था- राष्ट्रीय आदिवासी एकता परिषद के कृष्णन कंदासामी के अनुसार प्रत्येक जिले के लिए अनिवार्य दस लाख रुपये के कोष दक्षिण भारत में अभी तक नहीं बनाए गए हैं।
कंदासामी ने कहा, "इसका परिणाम यह हुआ कि कई मामलों में अधिकारियों ने सूचना मिलने पर भी मजदूरों को बचाने की कार्रवाई करने से इनकार कर दिया। उन्होंने कहा कि उनके पास बचाये गये मजदूरों को मुआवजा देने के लिए धन नहीं है।"
तस्कर देश भर के ग्रामीणों को अच्छी नौकरी दिलाने का प्रलोभन और अग्रिम भुगतान देकर उन्हें बंधुआ मजदूरी के जाल में फंसा लेते हैं और फिर उस ऋण को चुकाने के लिए उनसे खेतों या ईंट भट्ठों में जबरन मजदूरी करवाई जाती है, वेश्यालयों में गुलाम के तौर पर या घरों में बंदी बनाकर काम करवाया जाता है।
मई 2016 से प्रभावी देश के नए नियमों में प्रत्येक बचाये गये बंधुआ मजदूर को मौके पर ही तत्काल 5000 रुपये की सहायता राशि देने का प्रावधान है।
चूंकि बंधुआ मजदूरों को मुआवजे की राशि मिलने में देरी होती है, इसलिए भारत सरकार ने योजना के वार्षिक बजट को पांच करोड़ रुपये से बढ़ाकर 47 करोड़ रुपये कर दिया है।
भारत सरकार के श्रम और रोजगार मंत्रालय में श्रम कल्याण प्रभारी वरिष्ठ अधिकारी रजित पुन्हानी ने कहा, "राज्य सरकारें पहले भुगतान करें और फिर भुगतान की गई पूरी रकम हम से प्राप्त कर सकती हैं। कई मामलों में तो हमसे अभी तक धन की कोई मांग नहीं की गई है।"
करीबन दो सप्ताह पहले कर्नाटक में बेंगलुरु के बाहरी इलाके में एक ईंट भट्ठे से 12 बच्चों सहित 31 मजदूरों को बचाया गया था।
आठ महीने तक ईंट भट्ठे में ऋण बंधक के तौर पर रखे गये आठ परिवारों को वहां से छुड़ाकर प्रत्येक को केवल एक-एक हजार रुपये देकर ओडिशा में उनके घर भेजा गया था, जो उनके मुआवजा पात्रता राशि का पांचवा हिस्सा है।
मजदूरों को छुड़ाने की कार्रवाई में शामिल अधिकारियों ने इसका कारण धन की कमी बताया था।
कार्यकर्ताओं का कहना है कि बेंगलुरु क्षेत्र में जनवरी से बंधुआ मजदूरी और तस्करी के जाल से 185 लोगों को छुड़ाया गया है, लेकिन ज्यादातर लोगों को संशोधित योजना के तहत मुआवजा नहीं मिला है।
कर्नाटक में बंधुआ मजदूर योजना का निरीक्षण करने वाले अधिकारी कोडिपलाया कृष्णप्पा ने कहा कि राज्य ने श्रम विभाग से धन उपलब्ध कराने को कहा है और इस प्रक्रिया में तेजी लाने की कोशिश की जा रही है।
सरकारी आंकड़ों के अनुसार 1978 में लागू की गई पहले की योजना के तहत लगभग दस लाख बंधुआ मजदूरों में से एक चौथाई से अधिक लोगों को मुआवजा मिल चुका है।
कार्यकर्ता भुगतान में देरी के लिए आधिकारिक उदासीनता को दोषी ठहराते हैं।
बंधुआ मजदूरों को छुड़ाने और उनके पुनर्वास के लिए सरकारों के साथ कार्य करने वाले गैर-सरकारी संगठन -इंटरनेशनल जस्टिस मिशन के एस्थर डेनियल्स ने कहा, "बंधुआ मजदूरी को अभी भी 'गरीबी के कारण होने वाली समस्या' या 'अतीत के अवशेष' के रूप में देखा जाता है। कई लोग अपराध की आधुनिक प्रकृति को नहीं देख पाते हैं, जो अक्सर बहुत हिंसक होती है।"
(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- अलिसा तांग; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)
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