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फ़ीचर- भारत के कपड़ा केंद्रों में खाली पेट कताई

by Anuradha Nagaraj | @anuranagaraj | Thomson Reuters Foundation
Wednesday, 7 June 2017 13:24 GMT

  • अनुराधा नागराज

     डिंडिगुल, 7 जून (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन)- आनंदी मुरुगेसन के घर में बर्तन-भांडे खाली पड़े हैं। फर्श पर मुट्ठी भर सब्जियां फैली हुई हैं। रात का भोजन तैयार होने में अभी काफी समय है।

   15 साल की मुरुगेसन ने आठ घंटे पहले थोड़े से चावल और बची हुई दाल खाई थी और इतना समय बीतने के बाद अभी भी ताजा पके भोजन की कोई उम्‍मीद नहीं है।

       तमिलनाडु के मंजानैकेनपट्टी गांव में अपने दो कमरे के घर की छोटी सी रसोई से उसने कहा, "चावल रखे हैं और मेरी छोटी बहन थोड़ा सा रसम बना लेगी।"

    एक कताई मिल में 10 घंटे की पारी में काम कर लौटने पर वह कहती है कि "वैसे भी उसे बहुत भूख नहीं लगी है, बस वह बहुत थक गयी है।"

     मुरुगेसन दक्षिणी राज्य तमिलनाडु की लगभग 1,600 मिलों में काम करने वाले चार लाख श्रमिकों में से है, जो भारत के 40 अरब डॉलर के परिधान और कपड़ा उद्योग का प्रमुख केंद्र है।

   इस क्षेत्र में स्वास्थ्य शिविर आयोजित करने वाले डॉक्टरों के अनुसार इस उद्योग में कार्यरत अधिकांश किशोर लड़कियों की तरह उसका भी वजन कम है, उसके शरीर में खून की कमी है और वह भूखे पेट क्षमता से अधिक काम करती है।   

      बेंगलुरु के सेंट जॉन्‍स मेडिकल कॉलेज के सामुदायिक स्वास्थ्य विभाग प्रमुख डॉ बॉबी जोसेफ ने कहा, "आधे से अधिक लड़कियां दिन भर भूखी रहती हैं, क्‍योंकि काम की जल्‍दी में वे दिन में भोजन नहीं खातीं या जल्‍दी-जल्‍दी थोड़ा सा भोजन खाती हैं।"

     परिधान क्षेत्र में कार्यरत कर्मियों के स्वास्थ्य का अध्ययन करने के लिये जोसेफ ने कोयंबतूर, डिंडीगुल, तिरुपुर और ईरोड जिलों में लड़कियों के स्‍वास्‍थ्‍य के आंकड़े तैयार किये हैं।

      अध्ययन में पाया गया कि लगभग 45 प्रतिशत लड़कियों का वजन कम है और अधिकतर लड़कियां कभी- कभार ही फल या सब्‍जी खाती हैं।

  "महीने में एक अंडा"

    यह अध्‍ययन डिंडीगुल जिले में स्वास्थ्य शिविर चलाने वाली लाभ निरपेक्ष संस्‍था- सेरेन सेक्युलर सोशल सर्विस सोसायटी के अध्‍ययन से मेल खाता है, जिसमें कहा गया था कि इस उद्योग के अधिकांश युवा कर्मी भी कुपोषित थे।

    श्रमिक अधिकारों के लिये कार्य करने वाली इस सोसायटी के एस. जेम्स विक्टर ने कहा, "जो भोजन वे खाते हैं उसमें पर्याप्त कैलोरी नहीं होती है।"

    "हमने पाया कि उनमें से 65 प्रतिशत कर्मियों ने एक महीने में केवल एक बार ब्रॉयलर मुर्गा या अंडा खाया था और केवल 11.2 प्रतिशत कामगारों ने एक महीने में साग-सब्‍जी खायी थी। जो भोजन वे खाते हैं उसमें उनके काम करने के लिये पर्याप्त नहीं होता है।"

    मुरुगेसन की पसंदीदा सब्‍जी एक प्रकार की चौड़ी फली है, जिसके ऊपर कद्दूकस किया नारियल ड़ाला जाता है।    

  लेकिन उसे याद नहीं कि पिछली बार उसने वह सब्‍जी कब खाई थी।

  उसने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "हम सब्जियों की तरह सब्‍जी नहीं खाते हैं, बल्कि हम सब्‍जी के कुछ टुकड़े दाल में डालते हैं और फिर उसे चावल तथा अचार के साथ खाते हैं।"

   उसने कहा कि लगभग 5,500 रुपये के उसके मासिक वेतन का एक बड़ा हिस्सा भोजन पर नहीं, बल्कि दर्द निवारक बाम और दवाओं पर खर्च होता है।

    मुरुगेसन पौ फटते ही जाग जाती है और एक कप चाय गटक कर सुबह आठ बजे की पारी के लिये छह बजे कारखाने की बस पकड़ती है। दिन का पहला भोजन वह कताई मिल में लगभग 10 बजे लेती है।

  उसका कहना है कि वह बहुत ही अरूचिकर भोजन होता है, लेकिन दिनभर काम करने के लिये वह जबरन थोड़ा सा खाना खाती है।

   उसने कहा, "अक्सर चावल पूरी तरह से पका नहीं होता है, कभी नमक कम, तो कभी ज्यादा होता है।"

   चूंकि प्रबंधन 750 रुपये का मासिक कैंटीन सेवा शुल्क काटता है इसलिए वह घर से भोजन नहीं लाती है।

   उसके कुछ मित्र चावल और बचा हुआ भोजन छोटे से स्‍टील के लंच बॉक्स में लाते हैं, लेकिन फिर भी उन्‍हें कैंटीन सेवा शुल्क का भुगतान करना पड़ता है।

   "अगर भोजन अच्छा भी है तो भी हमें सिर्फ 30 मिनट मिलते हैं, जिसमें हमें शौचालय का इस्‍तेमाल करने के लिये कतार में लगना होता है और भोजन भी खाना होता है। जितने मिनट की देरी होती है उतना हमें जुर्माना भरना पड़ता है।"

   लाभ निरपेक्ष संस्‍था- समुदाय जागरूकता अनुसंधान शिक्षा न्‍यास के एक सर्वेक्षण से पता चलता है कि श्रमिकों को भोजन खाने के लिए 10 मिनट से भी कम समय मिलता है।

     न्‍यास के एस एम पृथ्वीराज ने कहा, "इस दौरान ज्यादातर लड़कियां शौचालय जाती हैं, जहां उन्हें कम से कम 10 मिनट लगते हैं।"

   "अगले 10 मिनट थाली, भोजन, एक गिलास पानी लेने और बैठने के लिए स्थान ढूंढने में खत्‍म हो जाते हैं। जिसके बाद प्रत्येक लड़की के पास भोजन खाने, अपनी थाली साफ करने और वापस मशीन तक पंहुचने के लिए लगभग 10 मिनट का समय बचता है।"

   

  इसलिये अधिकत‍र लड़कियां थोड़ा सा खाना खाकर, पानी पीकर काम पर लौट जाती हैं।  

  मुरुगेसन शाम सात बजे घर लौटती है।

  फिर वह कपड़े धोती है, स्नान करती है और सोने से पहले थोड़ा खाना खाती है।

    उसने कहा, "मैं अत्‍यधिक थक जाती हूं और अक्सर लगता है कि जैसे मेरा शरीर एक मशीन है। रात में मैं केवल सोना चाहती हूं। मेरी मां के जोर देने पर मैं थोड़ा सा खाना खाती हूं।"

  "बुनियादी देखभाल"

     उच्च वर्ग की कंपनियों के लिए धागा, कपड़े और वस्त्र का उत्पादन करने वाले इस उद्योग में ज्यादातर गरीब, अशिक्षित और निम्न जाति के समुदायों की ग्रामीण युवा महिलाओं को काम पर रखा जाता है।

   उनका कहना है कि  वे प्रति दिन 12 घंटे तक काम करती हैं और उन्‍हें सामान्‍यतया धमकाया जाता है, उन पर अश्‍लील फब्तियां कसी जाती हें और उनका उत्पीड़न होता है।

  जोसेफ के अध्ययन से प्रबंधन की "सहानुभूति की कमी" के बारे में पता चलता है।

   उन्होंने कहा, "क्योंकि श्रमिक कम मेहनताने पर उपलब्ध हैं, इसलिये वे बुनियादी जरूरतों के अलावा अधिक सुविधाओं पर निवेश करना जरूरी नहीं समझते हैं।"

   विक्टर ने कहा कि खाने की गुणवत्‍ता के बारे में श्रमिकों को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। उन्‍होंने कहा कि ज्यादातर मिलों ने लागत कम करने के लिए पाम गुड़ और केले जैसी पारंपरिक स्वास्थ्य वर्धक खाद्य वस्‍तुएं देना भी बंद कर दिया है।

   तमिलनाडु स्पिनिंग मिल्स एसोसिएशन के उपाध्यक्ष पी.वी. चंद्रन ने कहा कि पूरे उद्योग को एक ही चश्‍में से देखना उचित नहीं है, क्‍योंकि कई पहलें की जा रही हैं।

   उन्‍होंने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "हमारी मिलों में महिलाएं केवल आठ घंटे ही काम करती हैं और हम उन्हें अच्छा खाना देने की कोशिश करते हैं। शेष दायित्‍व परिवार का होता है।"

    "मिल के हॉस्टल में रहने वाली लड़कियों की सुविधाओं में सुधार करने के निरंतर प्रयास किये जाते हैं, लेकिन कभी-कभी लड़कियां ही कहती हैं कि उन्‍हें सब्जियां नहीं चाहिये और इसके बजाय मसालेदार सालन की मांग करती हैं।"

  18 साल की वेलेंकनी मुथैया मानती है कि उसे तीखा शोरबा पसंद है "लेकिन रोजाना नहीं।"

  अपनी मां को रात के भोजन के लिए चावल बनाते देखते हुये वह कहती है कि उसके सभी सहकर्मी अपने स्वास्थ्य में गिरावट की शिकायत करते हैं।

    उसने कहा, "हम बेहोशी की हालत में काम करते हैं। हम सभी डॉक्टरों की फीस और दवाइयां खरीदने पर अधिक पैसा खर्च करते हैं। हम जानते हैं कि फल और सब्जियां हमारे लिए अच्छे हैं, लेकिन हम इन्‍हें खरीद नहीं सकते हैं।"

(1 डॉलर = 64.3200 रुपये)

 

(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- लिंडसे ग्रीफिथ; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

 

 

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