- अनुराधा नागराज
चेन्नई, 17 जुलाई (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – दक्षिण भारतीय शहर चेन्नई में तपती गर्मी की सुबह एक अदालत के छोटे से कमरे में वैश्विक फैशन ब्रांडों की आपूर्ति वाले कारखानों में कम मेहनताने के खिलाफ लंबे समय से संघर्ष कर रही लगभग बारह परिधान कर्मी सुनवाई के लिए आई हैं।
ये महिलाएं भारत के सालाना 40 अरब डॉलर के कपड़ा और परिधान उद्योग के सबसे बड़े केंद्र तमिलनाडु के उन हजारों कर्मियों में से हैं, जो न्यायालय के पिछले साल के ऐतिहासिक फैसले के बाद से लाखों रुपये के मुआवजे की मांग कर रहे हैं। न्यायालय ने कहा था कि कर्मियों को लंबे समय से कम मेहनताना दिया गया था।
मद्रास उच्च न्यायालय ने आदेश दिया था कि परिधान कर्मियों के वेतन में 30 प्रतिशत तक की वृद्धि होनी चाहिये, जो 12 साल में पहली बार बढ़ाई गई न्यूनतम मजदूरी है। न्यायालय ने यह भी कहा कि कामगार वर्ष 2014 से अपने बकाया वेतन का दावा कर सकते हैं।
लेकिन एक साल के बाद भी कई कारखाना मालिकों ने बकाया राशि का भुगतान नहीं किया है।
खचाखच भरी चेन्नई की अदालत में पीछे एक कोने में पॉलिथीन बैग में अपने दावे के कागजात लिये एक अधेड़ महिला नीले रंग की दीवार से टिक कर खडी थी।
आम तौर पर वह दिनभर विश्व के उच्च वर्ग के लिये स्कर्ट, शर्ट और कपड़ों की सिलाई करती है।
लेकिन कई महीनों से वह काम से छुट्टी कर अदालत आ रही है।
अदालती कार्रवाई पर असर पडने के डर से अपना नाम न बताते हुये 48 साल की सिलाई कर्मी ने कहा, "मैं सुनवाई के लिए आने के वास्ते एक दिन का वेतन छोड़ती हूं। भले ही ये बड़ी रकम ना हो, लेकिन यह हमारे खून पसीने की कमाई है।"
"मैं केवल वही मांग कर रही हूं जो मेरा हक है और वे मुझे यह भी नहीं बता रहे हैं कि वे मेरी बकाया राशि की गणना कैसे कर रहे हैं।"
सूचना के अधिकार कानून के तहत थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन द्वारा मांगे गये आंकड़ों के अनुसार अकेले चेन्नई क्षेत्र के सिलाई और निर्यात के लिये परिधान बनाने वाले कारखानों के विरूद्ध 150 से अधिक बकाया भुगतान के मामले दायर किए गए हैं।
इन दावों से बंदरगाह शहर के आस पास के कारखानों में काम करने वाले कम से कम 80,000 कर्मी लाभान्वित होंगे और उन्हें 49 करोड़ रुपये से अधिक की मुआवजा राशि मिलेगी।
लेकिन श्रमिक संघों का कहना है कि मुआवजे के दावे बहुत ही कम है,क्योंकि ये केवल सरकारी श्रम निरीक्षकों द्वारा दर्ज मामले हैं।
"वेतन में कटौती"
कार्यकर्ताओं का मानना है कि 2016 के मद्रास न्यायालय के निर्णय के तहत तमिलनाडु के परिधान और कपड़ा कर्मियों की औसतन मासिक आय 4,500 रुपये से बढ़ कर 6,500 रुपये हो जायेगी, जो अन्य राज्यों के कपड़ा कर्मियों के वेतन के बराबर है।
लेकिन कर्मियों का कहना है कि अदालत के आदेश के बाद से प्रबंधकों ने बकाया रुपया नहीं दिया या इसे देने में देरी की और कुछ लोगों के वेतन में कटौती भी की गई।
कार्यकर्ताओं का कहना है कि राज्य में न्यूनतम मजदूरी कानून के बावजूद हजारों कर्मियों का वेतन "काफी कम" है और उन्हें अभी भी वेतन की पर्ची नहीं दी जाती है या आमतौर पर केवल प्रशिक्षु के रूप में काम पर रखा जाता है।
मजदूर संघों के अदालती मामलों में मदद करने वाले वकील सेल्वी पलानी ने कहा,"मजदूरों को सही वेतन देने के बजाय, कंपनियां उनके अधिकारों को कम करने के तरीके तलाशती रहती हैं।"
"अदालत के आदेश के बावजूद पैसा नहीं दिया जा रहा है। श्रमिकों को अभी भी कम मजदूरी दी जा रही है।"
महिला श्रमिक संघ-पेन थोझिललार्गल संगम की सुजाता मोदी ने कहा कि कुछ कंपनियों ने मजदूरी तो बढ़ाई, लेकिन अब वे बीमार होने पर और कारखाने के भोजन तथा शटल बसों का खर्च वेतन में से काटते हैं जो पहले नि: शुल्क थे। इसका अर्थ है कि बहुत से श्रमिकों का वेतन ना के बराबर बढ़ा है या उनके वेतन में कोई बदलाव ही नहीं हुआ।
उन्होंने कहा कि कुछ कारखानों ने अधिक वेतन पानेवाले श्रमिकों को मामूली कारणों से ही नौकरी से हटा दिया।
मोदी ने कहा, "मजदूर अपने अधिकार के लिये गुहार लगा रहे हैं और प्रबंधन उनकी आय में कटौती के नये तरीके ला रहे हैं।"
"बार बार देरी"
न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के अंतर्गत श्रमिकों का शोषण रोकने के लिए राज्य सरकारों को हर पांच साल में मूल न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि करना आवश्यक है , लेकिन तमिलनाडु के कपड़ा निर्माताओं ने वेतन वृद्धि के विरूद्ध कई बार याचिकाएं दायर की हैं।
राज्य के श्रम आयुक्त का बालचंद्रन ने कहा कि निरीक्षक हर कंपनी के रिकॉर्ड की जांच कर रहे हैं कि वहां वेतन पिछले साल के फैसले के अनुरूप है या नहीं।
उन्होंने कहा, "हम कर्मियों के लिये उचित और शीघ्र वेतन सुनिश्चित करने के लिए हर संभव प्रयास कर रहे हैं।"
लेकिन तमिलनाडु के निर्माताओं का कहना है कि यह वृद्धि बहुत अधिक है और इससे अन्य राज्यों के प्रतिस्पर्धियों की तुलना में उन्हें नुकसान हो रहा है।
कुछ लोगों का कहना है कि वे कर्मियों को पहले से ही न्यूनतम मजदूरी से अधिक वेतन दे रहे हैं।
तिरुपुर एक्सपोर्टर्स एसोसिएशन के एस. शक्तिवेल ने कहा, "नए मानदंडों में कुशल और अकुशल श्रमिकों में स्पष्ट अंतर नहीं किया गया है।"
उन्होंने कहा कि कुछ कंपनियों ने इस आदेश के खिलाफ मद्रास उच्च न्यायालय में अपील की है।
चेन्नई श्रम अदालत में इन मामलों पर त्वरित कार्रवाई की जा रही है।
5000 रुपये की बकाया राशि की उम्मीद कर रही सिलाई कर्मी को धीमी गति से चल रहे छत के पंखे की आवाज से सुनने में परेशानी हो रही है।
उसने फुसफुसाते हुए कहा, "मेरी आर्थिक हालत अच्छी नहीं है।"
"कुछ महीने पहले ही मेरे पति का ऑपरेशन हुआ है, हमें कर्ज चुकाना है और घर भी चलाना है। कंपनी से मुझे लगभग एक वर्ष की बकाया राशि लेनी है। मुझे इस रकम की सख्त जरूरत है।"
जैसे ही उसके मामले की सुनवाई की बारी आई वैसे ही कंपनी के वकील ने और समय मांगा। इस पर न्यायाधीश ने और देरी ना करने की चेतावनी देते हुये सुनवाई की अगली तारीख तय कर दी।
अदालत से बाहर निकलते हुये सिलाई कर्मी ने कहा, "मुझे उम्मीद है कि मुझे अच्छी रकम मिलेगी।"
"इतने सालों के बाद मैं काम छोडना चाहती हूं, लेकिन इसकी कोई संभावना नहीं है। कम से कम वे मुझे उचित वेतन तो दे सकते हैं ताकि मुझे थोड़ा अच्छा लगे।"
(1 डॉलर = 64.3756 रुपया)
(रिपोर्टिंग-अनुराधा नागराज, संपादन- एम्मा बाथा; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)
Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.