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"सिर्फ ईंटें ही मायने रखती हैं": परिवार की मदद के लिए भारत के ईंट भट्ठों में मशक्कित करते बच्चे

by Anuradha Nagaraj | @anuranagaraj | Thomson Reuters Foundation
Tuesday, 19 September 2017 23:01 GMT

A girl carries bricks at a brick kiln in Zaheerabad, about 120 km (75 miles) west of the southern Indian city of Hyderabad March 31, 2009. REUTERS/Krishnendu Halder

Image Caption and Rights Information

-    अनुराधा नागराज

    चेन्नई, 20 सितंबर (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - एक रिपोर्ट में बुधवार को बताया गया है कि उत्तर भारत में न्यूनतम मजदूरी अर्जित करने के वास्‍ते आवश्‍यक ईंटें बनाने के लिये परिवार अपने छोटे बच्चों से ईंट भट्ठों पर काम करवाने को मजबूर हैं।

     मानवाधिकार समूह एंटी-स्लेविरी इंटरनेशनल और वालिंटियर्स फॉर सोशल जस्टिस की एक संयुक्त रिपोर्ट में बताया गया है कि भट्ठों में रहने वाले पांच से 14 साल के बच्चों में से 80 प्रतिशत बच्चों को अपने माता-पिता की रोजाना एक हजार ईंटें बनाने में मदद के लिये प्रतिदिन सात से नौ घंटे काम करना पड़ता है।

         वालिंटियर्स फॉर सोशल जस्टिस के गंगा सेखर ने कहा, "इस प्रणाली में केवल ईंटों का महत्‍व है, मनुष्य का नहीं।"

     "अगर आप अपने बच्चों से काम नहीं करवाते हैं, तो आप न्यूनतम मजदूरी अर्जित करने के लिए आवश्यक उत्पादन पूरा नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार बाल श्रम को बढ़ावा दिया जाता है।"

     रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में कम से कम एक लाख ईंट भट्ठों में दो करोड़ 30 लाख मजदूर काम करते हैं और भट्ठों में रहने वालों में से एक तिहाई बच्चे हैं।

     9 वर्षीय यशोदा को पढ़ने का शौक है और वह स्कूल जाना चाहती है।

      रिपोर्ट के साथ रिलीज किये गये वृत्तचित्र "इनविज़िबल चेन्स" (अदृश्य जंजीरें) में शोधकर्ताओं को उसने बताया कि पढ़ने की बजाय वह आधी रात से जागकर अपने पिता के साथ काम करती है।

      वृत्‍तचित्र में 14, 9 और 7 साल के तीन बेटों की मां कुसुमा ने कहा, "बच्चों को काम करना ही पड़ता है। अगर वे काम नहीं करेंगे तो वे क्या खाएंगे?"

    कार्यकर्ताओं का कहना है कि प्रति वर्ष बड़ी संख्या में मजदूरों की तस्करी कर उन्‍हें देश के तेजी से बढ़ते निर्माण उद्योग की मांग को पूरा करने वाले अनियमित ईंट भट्ठों पर काम करने के लिये लाया जाता है।

     रिपोर्ट में कहा गया है कि इन भट्ठों की भर्ती और भुगतान प्रणाली के कारण प्रवासी श्रमिक बंधुआ मजदूरी के जाल में फंस जाते हैं, जो भारत में गुलामी करवाने का सबसे प्रचलित तरीका है।

    उत्तरी राज्‍य पंजाब के मजदूरों पर केंद्रित रिपोर्ट में पाया गया कि 96 प्रतिशत श्रमिकों ने ऋण लिया था और उन सभी को गर्मियों के दौरान रोजाना औसतन 14 घंटे काम करने के बावजूद आठ से 10 महीने की पूरी अवधि में मजदूरी नहीं दी गई थी।

     काम की शुरुआत में श्रमिक अग्रिम पैसा लेते हैं और फिर वहां र‍हने की पूरी अवधि में उन्‍हें भोजन और जरूरत का सामान खरीदने के लिए हर सप्‍ताह या एक पखवाड़े में थोड़ा सा भत्ता दिया जाता है।

     काम की अवधि समाप्‍त होने पर उनकी अग्रिम राशि और भत्ता काटकर ईंटों की संख्या के आधार पर उनका वेतन दिया जाता है। एक हजार ईंटें बनाने के लिये प्रत्येक "काम करने वाली इकाई" के रूप में भुगतान किया जाता है और ये इकाई आमतौर पर एक परिवार होता है।

    रिपोर्ट में कहा गया कि 80 प्रतिशत से अधिक श्रमिकों ने बताया कि उन्‍हें तय किये गये वेतन से भी कम मजदूरी दी गई थी।

      एंटी-स्लेवरी इंटरनेशनल की सारा माउंट ने एक बयान में कहा, "श्रमिक पहले की अवधि में पर्याप्‍त मजदूरी अर्जित नहीं कर पाते हैं, इसलिए उन्‍हें फिर से कर्ज लेना पड़ता है।" उनका कहना है कि आवश्‍यक ईंटें बनाने के लिये मजबूरन उनके बच्चों को भी काम करना पड़ता है।

      रिपोर्ट में सरकार से आग्रह किया गया है कि वह कानून के अनुरूप प्रत्‍येक माह के अंत में मजदूरों को नियमित रूप से न्यूनतम मजदूरी का भुगतान सुनिश्चित करे।

(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- रोस रसल; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

 

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