×

Our award-winning reporting has moved

Context provides news and analysis on three of the world’s most critical issues:

climate change, the impact of technology on society, and inclusive economies.

तस्करी कर भारत लाये गये रोहिंग्या ऐसे स्थाsन की तलाश में जिसे वे अपना घर कह सकें

by Roli Srivastava | @Rolionaroll | Thomson Reuters Foundation
Friday, 5 January 2018 06:00 GMT

Rohingya children play at a makeshift settlement in Mewat, India, on Dec. 27, 2017. THOMSON REUTERS FOUNDATION/Roli Srivastava

Image Caption and Rights Information

-    रोली श्रीवास्तव

नूंह, 5 जनवरी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - उत्तरी भारत के मथुरा शहर में कबाड़ी का काम करने के लिए लगभग 8000 रुपये में बेचा गया रोहिंग्या शरणार्थी अब्दुल रहमान म्यांमार के रखाइन क्षेत्र के अपने घर और हरे भरे खेत को मजबूरन छोड़, पॉलिथीन बैग को सीलकर तैयार किये गये घर में रहता है।

बंधुआ मजदूरों के सात अन्य परिवारों के साथ रहमान को बचाकर जब रोहिंग्‍या बस्‍ती में भेजा गया था तब उसने सोचा था कि वहां उसे अपना घर मिल सकता है। उन लोगों को बांग्लादेश के एक शरणार्थी शिविर से तस्करी कर भारत में बेचा गया था।

हसरत से म्‍यांमार के अपने घर के बारे में बात करने वाले चार बच्‍चों के पिता 45 साल के  रहमान ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "लेकिन यहां मेरे पास रहने की कोई जगह नहीं है। मथुरा में मेरे सिर पर एक छत थी और नियोक्ता हमें खाने को भोजन देता था।"

नई दिल्‍ली से 100 किलोमीटर दूर मेवात स्थित बस्‍ती में पालथी मार कर बैठे उसने कहा, "एजेंट ने मुझसे वादा किया था कि भारत में अच्छा जीवन होगा। मैंने उस पर विश्वास किया था। सीमा पार कर भारत आने पर भी मैं डरा नहीं था।"

हालांकि संयुक्त राष्ट्र ने आगाह किया है कि बांग्लादेश के शरणार्थी शिविर मानव तस्करों के लिए अनुकूल क्षेत्र हैं, लेकिन हाल ही में रोहिंग्या बंधुआ मजदूरों को बचाए जाने से भारत में उनकी दासता के मामले सामने आये हैं।

भारत में 1976 से बंधुआ मजदूरी प्रतिबंधित है, लेकिन यह आज भी व्‍यापक रूप से प्रचलित है, क्‍योंकि कर्ज चुकाने के लिए खेतों, ईंट भट्ठों, वेश्यालयों में या घरेलू नौकरों के तौर पर लाखों लोग काम करते हैं।

कार्यकर्ताओं को आशंका है कि जहां बंधुआ मजदूरी से बचाए जाने के बाद भारतीय सरकार से नकद मुआवजा, भूमि और आवास पाने का दावा कर सकते हैं, वहीं रोहिंग्‍या मजदूरों के मामले में ऐसा संभव नहीं है, क्‍योंकि उनमें से ज्यादातर लोगों ने अवैध रूप से भारत में प्रवेश किया हैं और उनके खिलाफ कार्रवाई हो सकती है।

तेजी से बढ़ रहे शरणार्थी संकट के कारण लगभग 8,70,000 रोहिंग्या म्‍यांमार से बांग्लादेश पलायन कर चुके हैं। इनमें वे 6,60,000 लोग भी शामिल हैं, जो रोहिंग्या उग्रवादियों द्वारा सुरक्षा चौकियों पर हमला किये जाने पर म्यांमार सेना की जवाबी कार्रवाई के चलते 25 अगस्त के बाद यहां पहुंचे हैं।

लेकिन भारत में उनके आने का सिलसिला कई साल पहले से शुरू हो गया था। पिछले दशक में बौद्ध मतावलंबियों की बहुलता वाले म्यांमार से भाग कर आये लगभग 40,000 रोहिंग्या मुसलमान भारत में रह रहे हैं।

बेचे गये

चार साल की बंधुआ मजदूरी से बचाये जाने के बाद रहमान मेवात चला गया था, जहां 2013 में बसी बस्‍ती भारत की तीसरी सबसे बड़ी रोहिंग्‍या बस्‍ती है। जिस बस्‍ती में वह रहता है वह शहर की सात बस्तियों में से एक है और यहां की 90 झुग्गियों में 120 परिवार रहते हैं।

पिछले महीने 13 बंधुआ मजदूरों को बचाने में मदद करने वाले राष्ट्रीय बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अभियान समिति के संयोजक निर्मल गोराना ने कहा कि रोहिंग्‍या लोगों को मेवात इसलिये पसंद है, क्योंकि स्थानीय लोगों ने उन्हें रहने के लिये भूमि दी है।

गोराना ने कहा, "जब हमने उनसे पूछा कि बचाने के बाद वे कहां जाना चाहेंगे तो उन्‍होंने कहा कि वे अपने समुदाय के नजदीक रहना चाहते हैं।"

मेवात का नई दिल्ली के नजदीक होना भी यहां आने का प्रमुख कारण है, क्‍योंकि कई लोग दिल्‍ली और उसके बाहरी इलाकों में आकर काम करते हैं।  

मेवात में रोहिंग्‍या बस्‍ती के प्रमुख नूर आलम ने कहा, "हर दो महीने में और लोग यहां आ जाते हैं।"

"यहां घर बनाने के लिए जमीन तो है, लेकिन बांस, प्लास्टिक, रस्‍सी, कार्डबोर्ड की भी आवश्यकता होती है, जिसका खर्च लगभग 7,000 रुपये आता है। लेकिन उनके पास पैसे नहीं है।"

तस्‍करी किए गए तीन अन्य लोगों के साथ रहमान को 25,000 रुपये में मथुरा में बेचा गया था। उसके नियोक्ता ने उसकी मजदूरी में से वह राशि काट ली और उसे बचाने के समय उसके पास एक पैसा भी नहीं था।

बचाए गए एक अन्य रोहिंग्‍या व्‍यक्ति 22 वर्षीय सादिक हुसैन लगभग चार साल काम करने पर भी अपने मालिक के 25,000 रुपये का भुगतान करने के लिए पर्याप्त कमाई नहीं कर पाया था।

उसने कहा, "जब मुझे बचाया गया था तब भी मुझ पर 5,000 रुपये बकाया था।"

हुसैन के पास कोई नौकरी या सिर पर छत नहीं हैं और उसे भय है कि उसे काम नहीं मिल पायेगा क्योंकि संयुक्‍त राष्‍ट्र शरणार्थी एजेंसी (यूएनएचसीआर) द्वारा जारी किया गया उसका पहचान पत्र अधिकारियों के पास है।

शरणार्थी कार्ड ही पहचान का एकमात्र प्रमाण है जिसे किसी भी देश की नागरिकता नहीं होने के कारण रोहिंग्या लोगों को अपने नियोक्ताओं को दिखाना पड़ता है।

आतंकवादी

रोहिंग्या मुसलमानों के लिए काम हासिल करने में उनकी पहचान प्रमुख बाधा है, क्योंकि भारत 'सुरक्षा के खतरे' और पाकिस्तान स्थित आतंकवादी गुटों के साथ उनके संबंध का हवाला देते हुए उन्हें वापस भेजने के लिए कानूनन मंजूरी देने की मांग कर रहा है।

 यूएनएचसीआर में नीति सहयोगी ईप्शिता सेनगुप्ता ने कहा कि भारत में रहने वाले रोहिंग्‍या शरणार्थी अत्‍यंत गरीब, कम पढ़े-लिखे हैं और उनमें कुशलता की भी कमी है इसलिये वे कम वेतन वाली अनौपचारिक नौकरियां करते हैं। कभी-कभी उन्‍हें कार्यस्‍थल पर परेशान करने के साथ उनका शोषण भी किया जाता है।

स्‍वच्‍छ कपड़े पहने 21-22 साल का दिल मोहम्मद उन कुछ रोहिंग्या लोगों में से था, जिसे  उत्तरी शहर जम्मू में एक कार फैक्ट्री में नियमित नौकरी मिल गई थी और उसका वेतन 11,000 रुपये प्रतिमाह था। लेकिन "सुरक्षा कारणों" का हवाला देते हुये उसे यह नौकरी छोड़ने को कहा गया था।

हमेशा अपने पास यूएनएचआरसी का शरणार्थी पहचान पत्र रखने वाले मोहम्मद ने कहा, "मैंने अपने हाथ खढ़े किये और कहा कि मैं आतंकवादी नहीं हूं, मैं केवल एक कर्मी हूं।" मोहम्मद ने हिंदी बोलना सीख लिया है और उम्मीद है कि उसे दुभाषिया की नौकरी मिल जायेगी।

लेकिन उसका अन्य रोहिंग्‍या शरणार्थियों की तरह कभी न कभी वापस म्यांमार लौटने का सपना है।

उसने कहा, "भारत में किसी भी प्रकार के सामाजिक लाभ का दावा करने के लिये हमारे पास कोई पहचान नहीं है। हम यहां के नागरिक अधिकारों की मांग नहीं कर सकते। हम केवल अपने देश में ही ऐसा कर सकते हैं।"

(रिपोर्टिंग- रोली श्रीवास्‍तव, संपादन- केटी मिगिरो; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

 

 

A Rohingya woman stands at the door of her shanty at a makeshift settlement in Mewat, India, on Dec. 27, 2017. THOMSON REUTERS FOUNDATION/Roli Srivastava

SOLD

When Rahman was rescued after four years of bondage, he moved to Mewat, which has the third largest Rohingya population in India, dating back to 2013. The settlement he lives in is one of seven in the town and houses 120 families in 90 shanties.

Mewat is popular with the Rohingya because locals have given them land, said Nirmal Gorana, convener of the National Campaign Committee for Eradication of Bonded Labour, who helped rescue 13 enslaved Rohingya workers last month.

"When we asked them where they wanted to go after their rescue, they said they wanted to be closer to their community," Gorana said.

Mewat's proximity to New Delhi is a major draw as many travel to the city and its outskirts for work.

"Every two months, more people come in," said Noor Alam, who heads the Rohingya settlement in Mewat.

"There is land to build more tenements, but then you need bamboo, plastic, ropes, cardboard - that costs nearly 7,000 rupees. But they don't have money."

Rahman was sold, along with three other trafficked Rohingya, for 25,000 rupees ($394) in Mathura. His employer deducted the money from his wages, leaving him penniless when he was rescued.

Another rescued Rohingya, Sadiq Hussain, 22, had not earned enough to pay back the 25,000 rupees his employer gave him when he started work almost four years earlier.

"I still owed him 5,000 rupees when I was rescued," he said.

Hussain did not have a job or a roof over his head and feared he could not find work because his identity card, issued by the U.N. refugee agency (UNHCR), was with the authorities.

The refugee card is the only proof of identity that many stateless Rohingya have to show prospective employers.

Dil Mohammad shows his UNHCR refugee card at a makeshift settlement in Mewat, India, on Dec. 27, 2017. THOMSON REUTERS FOUNDATION/Roli Srivastava

TERRORIST

For Rohingya Muslims, their identity is a major hurdle to securing work as India is seeking legal clearance to deport them citing 'security threat' and links to Pakistan-based militant groups.

Rohingya refugees in India are very poor, have limited education and skills and work in low-paid, informal jobs where they are sometimes harassed and exploited, said UNHCR policy associate Ipshita Sengupta.

Dil Mohammed, a nattily dressed man in his early 20s, was one of the few Rohingya who found a regular job in a car factory in the northern city of Jammu, earning about 11,000 rupees a month. But he was asked to leave for "security reasons".

"I raised my hands and said I wasn't a terrorist, just a worker," said Mohammed, who carries UNHCR's refugee identity card wherever he goes, has learnt to speak Hindi and hopes to land an interpreter's job.

But what he shares with other Rohingya refugees is the dream to return to Myanmar, one day.

"We have no identity to claim any social benefits in India. We cannot demand citizens' rights here. We can do that only in our homeland," he said.

($1 = 63.5000 Indian rupees)

(Reporting by Roli Srivastava @Rolionaroll; Editing by Katy Migiro. Please credit Thomson Reuters Foundation, the charitable arm of Thomson Reuters, that covers humanitarian news, women's rights, trafficking, property rights, climate change and resilience. Visit news.trust.org)

Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.

-->