पोन्नेरी, 11 मार्च (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - पुलिस ने जब दक्षिण भारत के ईंट भट्ठे पर छापा मारा, तब वहां दूसरे राज्यों के सैकड़ों गरीब, अनपढ़ लोगों के साथ सीरिया बंचोर बंधुआ मजदूरी कर रही थी। इससे 48 वर्षीय बंचोर राहत महसूस करने की बजाय घबरायी हुई अधिक लग रही थी।
दो महीने से अधिक समय से अपने परिवार के साथ ईंट और गारे से बने बिना खिड़की वाले अंधेरे कमरे में रह रही बंचोर ने अपना सामान एक बोरे में भरा और अपने बच्चे का हाथ पकड़कर दोपहर की खिली धूप में बाहर निकली।
अध पकी ईंटों के ढेर पर चलते हुये बचाये गये मजदूरों को अस्थायी ख़ेमों तक ले जाने वाले ट्रक की ओर बढ़ते हुये उसने कहा, "मेरे पास दो बर्तन, दो जोड़ी कपड़े और थोड़ा सा चावल है। हम खाली हाथ अपना कर्ज चुकाने के लिए पर्याप्त धन कमाने की उम्मीद से आये थे।"
चेन्नई के बाहरी इलाके में भट्ठे की जमा भीड़ के बीच खड़ी बंचोर ने कहा, "हम खाली हाथ वापस जा रहे हैं, लेकिन कम से कम हमारे दुखों का अंत तो हुआ।"
कार्यकर्ताओं का कहना है कि भट्ठे के एक कर्मचारी से मिली खुफिया जानकारी पर कार्रवाई कर पुलिस और स्थानीय अधिकारियों ने पिछले हफ्ते बंचोर सहित ईंट भट्ठे पर काम करने वाले सभी 564 मजदूरों को बचाया। देश मे हो रहे इस प्रकर की कई बचाव कार्रवाईयों में से यह एक बड़ी करवाई है। कार्यकर्ताओं का कहना है इससे पता चलता है कि देश के तेजी से वृद्धी कर रहे निर्माण उद्योग में बड़ी संख्या में मजदूरों से जबरन काम करवाया जाता है।
निर्माण क्षेत्र में हो रहे शोषण को उजागर करने के लिए दो साल पहले शुरू हुये अभियान-"ब्लड ब्रिक्स" के संस्थापक चंदन कुमार ने कहा, "इस समस्या का आकार और भयावहता बहुत अधिक है।"
"अधिकतर भट्ठों में घोर उल्लंघन हो रहे हैं, लेकिन इन स्थानों के निरीक्षण और मजदूरों की स्थिती की जांच के लिये सरकार के पास संसाधनों या क्षमता की कमि है। इनमें से अधिकतर मजदूर आधुनिक समय की गुलामी कर रह रहे हैं।"
बंधुआ मजदूरों से शहरों का निर्माण
ऑस्ट्रेलिया के वॉक फ्री फाउंडेशन द्वारा तैयार किये गये वैश्विक गुलामी सूचकांक 2015 के अनुसार, विश्व के 3 करोड़ 60 लाख गुलामों में से लगभग आधे भारत में हैं।
कई भारतीय को उनके द्वारा लिये गये ऋण या विरासत में मिले कर्ज चुकाने के लिये सुरक्षा के तौर पर खेतों, वेश्यालयों, छोटी दुकानों और रेस्तरां में धोके से काम कराया जाता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि निर्माण क्षेत्र में विशेष रूप से ईंट बनाने और पत्थर खदानों जैसे अनियमित क्षेत्रों में इस तरह का शोषण आम बात है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्माण सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में से है, जो लगभग 3 करोड़ 50 लाख नौकरियां उपलब्ध करता है और देश के सकल घरेलू उत्पाद में आठ प्रतिशत का योगदान कर रहा है।
2050 तक देश के कस्बों और शहरों में 40 करोड़ 40 लाख अतिरिक्त आबादी बढ़ जाने का अनुमान है, जिससे बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं के लिए मांग तेज़ी से बढ़ती रहेगी।
सरकार स्वीकार करती है कि बुनियादी ढांचे का मौजूदा स्तर पर्याप्त नही है। उसका कहना है कि अकेले शहरी आवासीय क्षेत्र में ही 1 करोड़ 88 लाख "आवासीय इकाइयों" की कमी है।
मानव तस्करी और आधुनिक समय की गुलामी विषय के प्रमुख जानकार पी.एम. नायर ने कहा, "शहरों में बन रही इमारतों और निर्माण स्थल के बाहर पड़ी ईंटों के ढेर का संबंध निश्चित रूप से ईंट भट्ठों पर काम कर रहे बंधुआ मजदूरों से है।"
मुंबई में टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान में चेयर प्रोफेसर और मानव तस्करी पर अनुसंधान समन्वयक नायर ने कहा, "जब भी कोई ठेका दिया जाता है, तो उसमें श्रम लागत को भी शामिल किया जाता है, लेकिन उसका एक प्रतिशत भी उनके कल्याण के लिए नही रखा जाता।"
तस्करी और ठगी
देश के हजारों ईंट भट्ठों में अधिकतर हाथ से ईंटें काटने, आकार देने और सेंकने में कितने लोग काम करते हैं, इस बारे में कोई आधिकारिक आंकड़े उपलब्ध नही हैं।
विज्ञान और पर्यावरण केंद्र के 2015 के एक पेपर के मुताबिक कम से कम एक करोड़ लोग भट्ठों में काम करते हैं। शहरी बिल्डरों की सुविधा के लिये अधिकतर भट्ठें कस्बों और शहरों की सीमा पर होते हैं।
तमिलनाडु की राजधानी चेन्नई से लगभग 50 किलोमीटर (30 मील) दूर स्थित पोन्नेरी में श्री लक्ष्मी गणपति ईंट भट्ठा उद्योग से बचाये गये मजदूरों ने बताया कि उन्हें दो महीने पहले कैसे एजेंटों द्वारा यहां लाया गया था।
सभी मजदूर ओडिशा से है। उन्होंने बताया कि तस्कर उनके गांवों में आये और छह महीने तक मजदूरी करने के एवज में उन्हें 20,000 रूपए का कर्ज देने को कहा गया।
तस्कर ने फिर उन्हें अन्य "एजेंट" को बेच दिया, जो उन्हें अलग-अलग समूहों में रेल से चेन्नई लाया।
अपने चाचा के साथ भट्ठे पर आये एक युवा कर्मी ने बताया, "हमारे गांवों में आने वाले एजेंट संकट में फंसे परिवार तलाशते हैं। वे जानते हैं कि किसी परिवार में कब अप्रत्याशित खर्च किया गया और उसके बाद ऋण की पेशकश करते हैं।"
"वे हमारे पास तब आते हैं जब हम मुसीबतों में घिरे होते हैं और उनकी शर्त मानने के अलावा हमारे पास कोई विकल्प नहीं होता।"
अनिश्चित भविष्य
अपने बच्चों के साथ रह रहे मजदूरों ने बताया कि वे रोजाना 10 घंटे काम करते थे और अपने परिवार के साथ छोटे से कमरे में सोते थे, वहां साफ पानी या शौचालय भी नहीं था।
उन्हें बताया गया था कि मॉनसून से पहले जनवरी से जून तक उनसे काम करवाया जायेगा क्योंकि आम तौर पर बारिश के कारण काम नही होता है।
प्रत्येक परिवार को प्रतिदिन कम से कम 2,000 ईंटें बनानी पड़ती थी, जिनमें से कुछ परिवारों में बुजुर्ग या गर्भवती महिलाएं भी थीं। अगर वे ऐसा नहीं कर पाते तो उनके ऋण में से पैसों की कटौती की जाती थी।
उन्होंने कहा कि उनके पास ऋण के बारे में कोई सरकारी दस्तावेज नहीं है और यह भी नही पता है कि उन्होंने कितना कर्ज चुका दिया है।
छापे का नेतृत्व कर रहे राजस्व विभाग के अधिकारी एम.नारायणन ने कहा, "प्रत्येक परिवार पर 20,000 रुपए का कर्ज है और प्रत्येक परिवार को हर सप्ताह केवल 400 रूपए का भुगतान किया जा रहा था। जब तक वे अपने ऋण की पूरी राशि का भुगतान नही कर देते तब तक वे अपने घर नही जा सकते थे।"
ईंट भट्ठा मालिकों के साथ काम करने वाले एक डॉक्टर ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया कि मजदूर काम करते रहें इसलिये वह लगातार दर्द निवारक दवाईयां देता था। इस डॉक्टर को अन्य पांच व्यक्तियों के साथ- जिनमे भट्ठा पर्यवेक्षक भी थे- गिरफ्तार किया गया।
प्रचारकों का कहना है कि श्रम कानूनों की अवहेलना, एजेंटों और ईंट भट्ठा मालिकों की दण्ड से मुक्ति और बचाये गये श्रमिकों के लिए विकल्पों की कमि के चलते शोषण के इस चक्र को तोड़ना कठिन है।
अमेरिका के मानवाधिकार समूह, अंतरराष्ट्रीय न्याय मिशन के प्रवक्ता मैथ्यू जोजी ने कहा, "ज्यादातर मामलों में बचाए गये मजदूरों का कहना है कि भोजन के लिये उनके पास दूसरा कोई जरिया नही है, इसलिये एजेंट के साथ जाने के सिवाय कोई विकल्प नहीं है।"
असंगठित श्रमिक संघ की आर. गीता ने कहा कि "जब तक जमीनी हकीकत नही बदलती, तब तक बचाव के बाद भी उनकी स्थिती में सुधार नहीं होगा।" आमतौर पर बचाव से ऋण बंधन का अंत नहीं होता है।
गीता ने कहा, "निगरानी के अभाव में बचाये गये अधिकतर मजदूर दोबारा बंधक बन जाते हैं या इसी के समान खराब स्थितियों में दूसरे मालिक के लिए काम करते हैं।"
बंचोर और उसके परिवार के लिये उनके गांव में बेहतर जीवन की गारंटी कम ही है।
ईंट भट्ठे के बाहर बस में सवार होते हुये उसने कहा, "हम घर जा रहे हैं, लेकिन हमारा भविष्य अनिश्चित है।"
(रिपोर्टिंग-अनुराधा नागराज, अतिरिक्त रिपोर्टिंग- नीता भल्ला, संपादन- केटी गुयेन। कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। और समाचारों के लिये देखें http://news.trust.org)
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