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फीचर- खानों में बागों के लिये सुंदर टाइल्सा बनाने से मजदूरों की मृत्युन

by रीना चंद्रन | @rinachandran | Thomson Reuters Foundation
Monday, 9 May 2016 12:03 GMT

In this file photo, children break stones at a quarry in Anangpur village, on the outskirts of the Indian capital of New Delhi. REUTERS/Kamal Kishore.

Image Caption and Rights Information

-    रीना चंद्रन

बुधपुरा, 9 मई (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - राजस्थान के प्राचीन किलों और भव्‍य महलों के मनोरम दृश्‍यों के बीच परेशान करने वाला नजारा है: पत्थर खदानों के सैकड़ों श्रमिकों की स्थिति। देश और विदेशों के बागीचों और आंगन को सजाने के लिये बलुआ पत्थर की टाइल्‍स काटने और चमकाने के दौरान सिलिकोसिस बीमारी से कई श्रमिकों की मौत हो रही है।

रसोई के काउंटर बनाने और फर्श के रूप में इस्तेमाल किये जाने वाले अधिकतर बलुआ पत्थर कोटा और बूंदी जिलों का होता है, जहां मजदूर बहुत ही कम मजदूरी में बिना सुरक्षात्मक सुविधाओं के कठिन परिस्थितियों में कड़ा परिश्रम करते हैं।

श्रमिक अधिकारों के समर्थकों के अनुसार राज्य के 20 लाख खान मजदूरों में से करीबन आधे श्रमिक सिलिकोसिस या सांस संबंधी अन्य बीमारियों से पीडि़त हैं।

हालांकि इसका कोई व्यापक आंकड़ा उपलब्‍ध नहीं है, लेकिन बलुआ और चूना पत्थर के खनन और प्रसंस्करण के दौरान निकलने वाले सिलिका के धूल कणों में लम्‍बे समय तक रहने से संभवतः सैकड़ों हजारों श्रमिकों की  फेफड़ों की लाइलाज बीमारी सिलिकोसिस से मृत्‍यु हो चुकी हैं।

राजस्थान के मानवाधिकार आयोग ने बीमारी की रोकथाम के लिए पिछले साल राज्य सरकार से खनन के आधुनिकीकरण और श्रमिकों की नियमित चिकित्सा जांच कराने को कहा था। कार्यकर्ताओं का कहना है कि बाल मजदूरी रोकने के लिये सरकार को और अधिक प्रयास करने चाहिये, क्‍योंकि बच्‍चों का कोमल शरीर आसानी से सिलिकोसिस की चपेट में आ सकता है।

चिकित्सा जांच कराने में स्‍थानीय धर्मार्थ संस्‍था की मदद कर रही संस्‍था- एक्शन एड के मदन वैष्णव ने कहा, "श्रमिकों के लिये सुरक्षा के कोई उपाय नहीं हैं और ना ही उनके कोई अधिकार हैं। वे गुलामों की तरह काम करते हुये बहुत बीमार हो जाते हैं और मर जाते हैं।"

उन्होंने कहा,"अगर आपका मानना है कि बच्‍चों का काम करना जरूरी है क्योंकि वे गरीब हैं, इस काम से उनकी मौत हो सकती है।  ये खदाने बच्चों के लिए नहीं हैं।"

विश्‍व की पत्थर खदानों में से एक चौथाई से अधिक भारत में हैं और यह दुनिया के सबसे बड़े कच्चा पत्थर उत्पादकों में से एक है।

भारत के खान श्रमिकों में से लगभग 20 प्रतिशत बच्चे हैं। उनमें से कई श्रमिक खतरनाक स्थितियों और गंदगी में रोजाना 10 घंटे से अधिक काम करते हैं।

"खतरनाक स्‍तर"

बूंदी जिले में बंजर भूमि पर खुली खान और खदाने हैं। यहां लोकप्रिय लाल-भूरे रंग की पत्थरों की चट्टानों के ढ़ेर पड़े होते है, जिन्‍हें निर्यात कंपनियों को भेजा जाता है, जहां पर इन पत्‍थरों की कटाई की जाती है और चमकाया जाता है। यहां से पत्‍थरों को गांव के घरों में भी भेजा जाता है, जहां महिलाएं टाइल्स बनाने के लिए छेनी से इन पत्‍थरों को छोटे टुकड़ों में काटती हैं।

खदानों में पत्‍थर तक पंहुचने के लिये भूमि को रसायन से गलाया जाता है और मजदूर चश्मे, मुखौटे या अन्य सुरक्षात्मक उपकरण के बगैर इन पत्‍थरों को छेनी से सिर्फ 150 रूपये प्रतिदिन की दिहाड़ी से काटते और संवारते हैं।

यूनिसेफ की वर्ष 2013 की रिपोर्ट के अनुसार इस उद्योग में काम करने की स्थिति राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय मानकों पर "अति दयनीय" है  और बाल श्रम भी "खतरनाक स्तर" पर है।

इसमें कहा गया है कि बूंदी जिले के 50,000 से अधिक खनन कर्मियों में से 10,000 के करीब बाल श्रमिक हैं।

यूनिसेफ की रिपोर्ट में बताया गया कि, "बहुमुखी आपूर्ति श्रृंखला और बिचौलियों के आपसी नेटवर्क के कारण इस उद्योग की जटिल सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक चुनौतियां हैं, जिससे पत्थर के सही स्रोत का पता लगाना मुश्किल होता है।"

देश में सबसे अधिक बलुआ पत्थर का उत्पादन राजस्थान में होता है। गरीबी में जकड़े तथा खदान मालिकों के ऋण बंधन में फंसे ग्रामीण श्रमिकों की पीढ़ियों के लिए यह उद्योग आजीविका का एकमात्र स्रोत है। इनमें से अधिकतर खदाने गैर कानूनी हैं।

दलाल पड़ोसी राज्‍य मध्य प्रदेश, बिहार और ओडिशा से भी श्रमिकों को अच्छे वेतन का लालच देकर खदानों में काम करने के लिये लाते हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि इस तरह का शोषण देश के निर्माण क्षेत्र विशेष रूप से ईंट बनाने और पत्थर खनन जैसे अनियमित क्षेत्रों में आम बात है।

बुधपुरा गांव में छह या सात साल के बच्‍चे छेनी से पत्‍थर काटने का काम शुरू कर देते हैं। लड़के 12 या 13 साल की उम्र से खदानों में काम शुरू करते हैं, जबकि लड़कियां फर्श के लिये पत्थर काटने और टाइल्स बनाने का काम करती हैं।

कार्यकर्ताओं का कहना है कि फर्श बनाने के लिये पैसा प्रति नग के आधार पर दिया जाता है, जिससे अधिक आय के लालच में परिवार के ज्‍यादा से ज्‍यादा सदस्‍य इस काम में जुट जाते हैं। बच्चों को अक्सर मजबूरन काम करना पड़ता है, क्योंकि सिलिकोसिस से उनके पिताओं की जवानी में ही मौत हो जाती हैं।

राज्य में खान श्रमिकों का सर्वेक्षण करने वाली सार्वजनिक-निजी विकास एजेंसी-अरावली ने पाया कि 10 साल या उससे अधिक समय तक सिलिका के धूल कण सांस के साथ शरीर में पंहुचने से सिलिकोसिस होता है। हाल तक मजदूरों की लगातार खांसी और वजन घटने का कारण तपेदिक बताया जाता था और बीमारी के लिए कोई मुआवजा नहीं दिया जाता था।

35 वर्षीय मदन लाल ने कहा, "हम गरीब हैं, इसलिये हमारे बच्चों को मजबूरन काम करना ही पड़ेगा। वैसे भी मालिक कभी नहीं पूछते हैं कि बच्‍चे कितने साल के हैं।" पिचके गालों और धंसी हुई आंखों के कारण मदन लाल की उम्र कम से कम 45 साल लग रही थी।

उसने कहा, "मेरे पिता भी खदान में काम करते थे। जब मैं सात साल का था तब उनकी मृत्‍यु हो गई थी, इसलिए मैंने काम करना शुरू कर दिया था। उस समय हमें सिलिकोसिस के बारे में पता नहीं था। अब मुझे भी यही बीमारी हो गई है। कभी- कभी मुझे इतनी कमजोरी महसूस होती है कि मैं काम भी नहीं कर पाता हूं।"

 "बीमारी और मृत्‍यु"

राजस्थान देश के सबसे गरीब राज्यों में से एक है। यहां सबसे कम साक्षरता दर है और जाति प्रथा की जड़ें गहरी हैं। खदानों में काम करने वाले ज्यादातर दलित और अन्य निम्‍न जाति तथा आदिवासी समुदायों से होते हैं।

पर्यावरणविद भी बलुआ पत्थर उद्योग के आलोचक हैं। उनका कहना है कि खनन और रसायनों के डालने से भूमि क्षरण होता है, वनों की कटाई होती है और भूजल प्रदूषित होता है।

वैष्णव का कहना है कि 150 परिवारों की आबादी वाले बुधपुरा गांव में 18 वर्षीय लड़के सहित कम से कम 70 श्रमिक सिलिकोसिस बीमारी से पीडि़त हैं। एक स्थानीय धर्मार्थ संस्‍था नजदीकी शहर के एक विशेष क्लीनिक में उनकी जांच कराने और बीमारी होने पर चिकित्सा प्रमाण पत्र दिलाने में मदद करती है।

यह प्रमाण पत्र मिल जाने पर मजदूर सरकार द्वारा दिए जाने वाले एक लाख रुपए की चिकित्सा सहायता के लिये आवेदन कर सकते हैं। कार्यकर्ताओं के नेतृत्‍व में श्रमिकों के अधिकारों के लिये अभियान के बाद सरकार ने यह मदद देनी शुरू की है। सिलिकोसिस के कारण किसी मजदूर की मृत्‍यु हो जाने पर उसके परिजनों को तीन लाख रुपये का मुआवजा मिलता है।

अपनी जेब में चिकित्सा प्रमाण पत्र की फोटोकॉपी रखे लाल ने बताया, "मालिक नहीं चाहते हैं कि हम डॉक्टर के पास जायें। वे नहीं चाहते हैं कि हमें पता चले कि हम सिलिकोसिस से पीडि़त हैं, क्योंकि क्यूंकी यह खदान मे काम करने से हुआ है।"

उसने कहा, "हमें डर है कि हमारे बच्चों को भी यह बीमारी हो जाएगी। लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं? हम इतने शिक्षित भी नहीं कि कहीं अन्य नौकरी कर सकें।"

कार्यकर्ताओं द्वारा उद्योग की बदहाली पर विदेशी खरीदारों का ध्यान आकर्षित करने के बाद बेल्‍ट्रामी, मार्शल्‍स और हार्डस्‍केप सहित ब्रिटेन की कई कंपनियां आपूर्ति श्रृंखला में सुधार के लिये राजी हो गई हैं।

मार्शल्‍स की  वेबसाइट के अनुसार भारत और चीन से माल खरीदते समय वे सुनिश्चित करते हैं कि खदानों में बाल मजदूरों से काम ना करवाया जाता हो, श्रमिकों को उचित मजदूरी दी जाती हो और उनसे सुरक्षित माहौल में काम कराया जाता हो।

कोटा जिले में राज्‍य सरकार द्वारा संचालित बाल कल्याण समिति की अध्यक्ष पुखराज भाटिया का कहना है कि राजस्थान सरकार बाल श्रमिकों के पुनर्वास के लिए आवश्‍यक कदम उठा रही है।

उन्‍होंने कहा, "लेकिन गरीबी बहुत बड़ी समस्‍या है और कई परिवारों के सामने बच्चों से काम करवाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बाल श्रम रोकने के लिए जागरूकता तथा कई और कल्याणकारी कार्यक्रमों की जरूरत है, जिसमें समय लगेगा।"

तब तक लाल के बच्चों और मध्य प्रदेश के झाबुआ से आये वैश्‍ना रमेश के 16 साल के भतीजे नीरू  के सामने विकल्प बहुत ही कम हैं।

भोजन करने से पहले उसने कहा, "मैं कभी स्कूल नहीं गया। मैंने हमेशा परिवार के साथ खदान में ही काम किया है।"

 धूल से सने चेहरे और हाथ दिखाते हुये उसने कहा, "मुझे केवल यही काम करना आता है।"

(रिपोर्टिंग- रीना चंद्रन। संपादन – रोस रसल। कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। और समाचारों के लिये देखें http://news.trust.org)

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