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फीचर- ऋण बंधन के लिए एक तरफा टिकट बेचते भारत की "प्रवास एक्सप्रेस" के एजेंट

by Anuradha Nagaraj | @anuranagaraj | Thomson Reuters Foundation
Thursday, 10 November 2016 00:00 GMT

Men, women and children from drought-prone regions of Odisha state in eastern India scramble to board a train in Kantabanji town, a major hub of debt bondage. The migrant workers will travel to brick kilns across the country. Photo by Bishnu Prasad Sharma.

Image Caption and Rights Information

- अनुराधा नागराज

     कांताबांजी, 10 नवम्‍बर  (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – निजाम खान ने श्रमिकों के भर्ती अभियान छेड़ रखा था। वह शरद ऋतु में श्रमिकों की तलाश में ओडिशा के कांताबंजी शहर के आसपास के गांवों में जाता  रहा।

  वह गरीब परिवारों, बेरोजगार पुरुषों और हताश दम्‍पति को चुनता। स्थानीय फसल कटाई के त्योहार से पहले वह उनको भोजन और कपड़े खरीदने के लिए नकद रकम देता, जिसके  बदले में  वे उसे अपनी स्वतंत्रता सौंपते थे।

    सूखा प्रभावित जिले के रेलवे शहर- कांताबांजी में अपनी ट्रांस्‍पोर्ट कंपनी के कार्यालय में बैठे खान ने कहा, "यहां कोई रोजगार नहीं है।"

     "अगर हम लोगों को यह ऋण और नौकरी ना दें तो वे भूखे मर जायेंगे।"

     खान जिसे "ऋण और नौकरी" बताता है उसे अधिकार समूह ऋण बंधन कहते हैं, जो देश में जबरन मजदूरी करवाने का सबसे प्रचलित रूप है। वॉक फ्री फाउंडेशन के ग्लोबल गुलामी सूचकांक के अनुसार यहां लगभग एक करोड़ अस्‍सी लाख लोग किसी न किसी रूप में आधुनिक गुलामी करते हैं।

  22,000 की आबादी वाले कांताबांजी में यह प्रचलन इतना अधिक है कि हर दूसरा व्यक्ति "सरदार" या श्रम एजेंट है।

  ओडिशा में प्रवासी अधिकारों के हिमायती एड एत एक्शन के उमी डैनियल ने कहा, "बलांगीर जिले के उजाड़, गरीब परिदृश्य में कांताबांजी की बढ़ती अर्थव्यवस्था रेगिस्‍तान में पानी के समान है।"

    "उन प्रवासी मजदूरों की वजह से रेलवे स्टेशन फल फूल रहे हैं, जिन्‍हें बेहतर मजदूरी का झांसा देकर यहां से बाहर भेजा जाता है। लेकिन उन्हें बाहर भेज कर सिर्फ श्रम एजेंट ही मुनाफा कमा रहे हैं।"

  हर साल शरद ऋतु में पश्चिमी ओडिशा के गांवों से काम की तलाश में पूरे देश में जाने वाले हजारों लोगों को एजेंट अपने झांसे में फंसाते हैं। लोगों के इस पलायन को "वार्षिक प्रवास" कहा जाता है, जो फसल की बुवाई के मौसम तक चलता है।

   कार्यकर्ताओं का कहना है कि अधिकतर लोग उनके द्वारा लिये ऋण या उनके माता-पिता का कर्ज चुकाने की सुरक्षा के रूप में स्‍वेच्‍छा से काम करना स्‍वीकार करते हैं। फिर उन्‍हें अगले छह महीने या उससे भी अधिक समय तक उस कर्ज को चुकाने के लिये काम करना पड़ता हैं।

  90 प्रतिशत मामलों में श्रम एजेंट लोगों की तस्‍करी कर उन्‍हें देश के निर्माण उद्योग के लिये  ईंट भट्ठों में काम करने भेज देते हैं।

 

अधिकारियों को बाईपास कर तस्करी

    श्रमिक अधिकारों के लिये अभियान चलाने वालों का कहना है कि 30 से 40 वर्ष की उम्र के  एजेंटों ने कानून से बचने के तरीके निकाल लिये हैं। सस्ते श्रम की सतत आपूर्ति बनाए रखने के लिये वे अधिकारियों को रिश्‍वत देते हैं। श्रमिकों की अवैध भर्ती के इस उद्योग से प्रति वर्ष 150 बिलियन डॉलर अर्जित होते हैं।

   इस उद्योग से सरदारों के साथ ही तथाकथित बाहुबली भी जुड़े हैं, जो बकायादारों से हिसाब बराबर करते हैं और अधिकारियों को रिश्वत देते हैं।

  वरिष्ठ पुलिस अधिकारी आशीष कुमार सिंह ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया कि ये लोग बंधुआ मजदूरों को शादी पार्टी का हिस्‍सा बताकर या उनके परिवारों को छोटे समूहों में बांटकर अधिकारियों को चकमा देते हैं।

   सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 2015 में श्रमिकों की अंतर-राज्यीय आवाजाही कानून के तहत बलांगीर जिले में वैध तरीके से श्रमिकों को भर्ती करने के लिए एजेंटों को लगभग 230 लाइसेंस दिये गये थे। उन्‍होंने 17,998 श्रमिकों को पंजीकृत कर देश के ईंट भट्टों में काम करने के लिये भेजा।

  इस साल 170 एजेंटों को लाइसेंस दिये गये हैं और 13,000 से अधिक मजदूरों को पंजीकृत किया गया है जो नवंबर में अपने घरों को छोड़ कर काम करने के लिये बाहर चले जायेंगे।

  कांताबांजी में कार्यकर्ताओं और एजेंटों के अनुसार यह प्रवासियों की वास्तविक संख्‍या से काफी कम है। उनका कहना है कि  लगभग पांच लाख लोग हर साल जिले से बाहर जाते हैं।

  जिला श्रम अधिकारी मदन मोहन पैक ने कहा, "वे अवैध रूप से जा रहे हैं, जिसका मतलब है उनकी तस्करी की जा रही है। लेकिन हमारे पास इसे असरदार ढंग से रोकने के तरीके और उपाय नहीं हैं। यह लंबे समय से ऐसे ही चल रहा है।"

  20,000 रुपये की "अग्रिम राशि" से शोषण शुरू होता है, जिसे स्‍वीकार करने से अति गरीब क्षेत्र के लोग इनकार नहीं कर पाते हैं। श्रमिकों को छह महीने में ऋण चुकाना पड़ता है।

  भट्टों में आम तौर पर प्रति 10,000 ईंटें बनाने पर 300-400 रुपये दिये जाते हैं, जिसका मतलब है कि श्रमिकों को कर्ज चुकाने के लिए लगभग सात लाख ईंटें बनानी होंगी।  

  एजेंटों को अपनी पेशगी रकम वापस पाने के अलावा उनके द्वारा बाहर भेजे गये प्रत्‍येक श्रमिक के लिए कमीशन मिलता है। उन्हें श्रमिकों द्वारा बनाई गई प्रत्‍येक 1,000 ईंटों पर 20 रुपये भी मिलते हैं।

  बचाये गये मजदूरों का कहना है कि आमतौर पर लिये गए ऋण या चुकाये गये कर्ज के बारे में कोई कागजात नहीं होते हैं।

  17 साल के उमेश महानंद ने कहा, "यहां तक कि गांव छोड़ने से पहले भी मैंने काम करके लगभग 30,000 रुपये का कर्ज चुकाया था। मैंने सोचा कि मैं कड़ी मेहनत कर इसे जल्दी चुका दूंगा, लेकिन मुझे नहीं पता था कि तकनीकी रूप से यह रकम कभी भी चुकायी नहीं जा सकती है।"

  आज के हालात

     प्रवास का यह चलन 1970 के दशक में दशरथ सुना नाम के व्‍यक्ति से शुरू हुआ, जो ईंट बनाने में अति कुशल था। पश्चिमी ओडिशा के अति गरीब जिलों में से एक बलांगीर  से बाहर जाने वाला वह पहला व्‍यक्ति था।

  कांताबांजी से 50 किलोमीटर दूर बेलपाड़ा गांव में अपने घर में सुना ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "मैं बहुत तेजी से काम करता था और एक दिन में 6,000 ईंटें बना लेता था।"

   "ईंट भट्ठा मालिक मुझसे खुश था और उसने मुझे अगली बार अपने मित्रों को भी साथ लाने को कहा। मैंने वैसा ही किया और धीरे-धीरे यह एक व्यवसाय बन गया।"

  सुना सितंबर में धान की कटाई के त्‍योहार नुआखाई के समय साइकिल से दूर-दराज के गांवों में जाता और कर्ज देने की पेशकश करता था।

   उसने कहा, "नुआखाई के अवसर पर कपड़े खरीदने, अच्छा भोजन, पीने और जश्न मनाने के लिए  हर किसी को अतिरिक्त पैसों की जरूरत होती है।"

  इसलिये उसने परिवारों को ऐसे सूखा प्रभावित क्षेत्र से बाहर जाने के लिये मना लिया, जहां विश्वसनीय रोजगार पाना मुश्किल है।

     बुजुर्ग सुना ने कहा, "यह बात मैं उन्हें समझा पाया और श्रम बाजार ईंट भट्ठा मालिक, एजेंट और मजदूर के बीच विश्वास से खड़ा हुआ।"

   जैसे-जैसे श्रम बाजार बढ़ा वैसे ही सुना का भाग्‍य भी। इन वर्षों में उसने बेलपाड़ा में दो मंजिला मकान बना लिया, जहां वह अपने बच्चों और पोतों के साथ रहता है।

  उसकी सफलता से अन्‍य लोग भी श्रम एजेंट बनने को प्रेरित हुये।

    इस क्षेत्र का लोकप्रिय गायक, सुना के पुत्र रूकु सोना ने कहा, "इस गांव में हरेक ने प्रवासन से लाभ उठाया है।"

  "यहां तक कि मजदूरों को भी लाभ हुआ है। अब हर घर में एक मोटर साइकिल है। अगर श्रमिक बाहर नहीं जाते तो यह संभव नहीं होता। वास्‍तव में किसी को भी शिकायत नहीं होनी चाहिये।"

  कांताबांजी की गलियों में सुना का नाम आदर से लिया जाता है, लेकिन बबलू खान के नाम से लोग भयभीत हो जाते हैं।

  शुरुआती दिनों में सुना के लोगों में से एक, बबलू खान का काम श्रम निरीक्षकों और रेलवे पुलिस को रिश्‍वत देना और अन्य एजेंटों के साथ लड़ाई कर सुना द्वारा चुने गये श्रमिकों को "प्रवास एक्सप्रेस" में चढ़ाना था।

  एक बार उनसे यह गुर सीख लेने के बाद बबलू खान ने अपना स्‍वयं का धंधा शुरू कर लिया।

  वह अन्य एजेंटों की तुलना में अधिक श्रमिक बाहर भेज कर जल्द ही इस बाजार का सबसे बड़ा खिलाड़ी बन गया और उसने जल्‍दी ही कांताबांजी में प्रवासन के मूल सिद्धांत बदल दिये।

  अपनी पहचान न बताने की शर्त पर एक उप-एजेंट ने कहा, "बाजार क्रूर हो गया। लोगों को पशुओं के झुंड़ की तरह रेलगाड़ियों में भेजा जाने लगा। कई लोग यात्रा और ईंट भट्टों की कठिनाइयों को बर्दाश्‍त कर पाते हैं, कई नहीं।"

  2013 में इस व्यापार की क्रूरता वैश्विक सुर्खियों में तब आई जब एजेंटों ने ऋण बंधन से भागने की कोशिश करने वाले दो मजदूरों के हाथ काट दिये थे। यह मामला अभी भी ओडिशा के एक अदालत में चल रहा है।

  रेलवे स्टेशन से विपत्ति की ओर

    निजाम खान ने अपने ख्वाजा गरीब नवाज ट्रांस्‍पोर्ट कार्यालय में साफ मेज के एक कोने में दो बिस्कुट के डिब्‍बे और अपने पिता की तस्वीर रखी है।

  सफेद कड़क शर्ट और नीली जींस में जब वह कार्यालय पंहुचा तो उसके दो गुर्गों ने बाहर बैठे लगभग छह मजदूरों को पास एक गली में इंतजार करने को कहा ।

  अंदर निजाम खान ने अपना श्रमिक एजेंट लाइसेंस और बाहर भेजे गये लोगों की सूची टांग रखी थी। सूची मे लिखा है कि किसे कहां भेजा गया है और प्रत्येक श्रमिक को कितनी अग्रिम राशि दी गई है।

  उसने कहा, "मेरे पिता के पास 1,400 मजदूरों को भेजने का लाइसेंस था और हम इसे निष्‍ठापूर्वक नवीनीकृत करवाते हैं। अब हर कोई एजेंट है और हरेक सैकड़ों लोगों को बाहर भेज रहा है। यहां जीने का यही तरीका है।"

  नाम न छापने का अनुरोध करते हुए पुलिस अधिकारियों ने बताया कि निजाम खान अपने लाइसेंस की सीमा की तुलना में कई हजार अधिक श्रमिकों को बाहर भेजता है। खान अपने कानूनी कोटा से अधिक मजदूरों को बाहर भेजने की बात से इनकार करता है।

  राज्य विधानसभा में कांताबांजी के निर्वाचित प्रतिनिधि हाजी मोहम्मद अयूब खान का कहना है कि इस क्षेत्र की अर्थव्यवस्था में 50 प्रतिशत योगदान प्रवासी श्रमिकों की आय का है। उनका भाई भी शहर के बड़े श्रम एजेंटों में से एक था।

  "सरकारी योजनाएं दूरदराज के गांवों तक नहीं पहुंच रही हैं, जिसके कारण लोगों के सामने कोई विकल्‍प नहीं है। यदि प्रवासन बंद हो जाता है, तो लोग अपराधी बन जायेंगे। वे जिंदा रहने के लिए चोरी करने लगेंगे।"

  इस प्रक्रिया को अधिक कुशल बनाने के लिए उन्‍होंने रेल मंत्रालय से कांताबांजी से जाने वाली रेलगाडि़यों की संख्या को बढ़ाने का आग्रह किया है।

  उनका भाई, श्रम एजेंट हारून खान कांताबांजी रेलवे स्टेशन पर कड़ी नजर रखता है।

  अपने कार्यालय के बाहर फुटपाथ पर एक कुर्सी पर बैठा हारून खान समाप्‍त हो रहे व्यापार के बारे में बात नहीं करना चाहता हैं। वह कहता हैं कि उसने यह काम छोड़ दिया है।

  लेकिन अगले ही पल मीठी चाय की चुस्‍की के साथ वह "उन शानदार दिनों की बात बताता हैं जब यह व्यापार शहर में शुरू हुआ था।"

  वह उन दिनों को याद कर कहता है, "होटल भरे रहते थें और ईंट भट्ठा मालिक श्रमिकों को अग्रिम राशि के तौर पर रुपये बांटने के लिये बड़े सूटकेस में पैसा भरकर लाते थें। उस समय उत्सव जैसा माहौल होता था।"

(1 डॉलर=66.723 रुपये) 

 (रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- टिमोथी लार्ज; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org

"They are going illegally, which means they are being trafficked," district labour officer Madan Mohan Paik said. "But we don't have ways and means to check this effectively. It has been like this for a very long time."

The exploitation begins with an "advance" of 20,000 rupees ($300) - a welcome sum in a region where poverty is dire. The workers have to pay back the loan after six months.

Kilns typically pay 300-400 rupees ($4-6) per 10,000 bricks, which means workers need to make almost 700,000 bricks to pay off the debt.

In addition to getting back their advance, agents receive a commission for every worker they send out. They also get 20 rupees (30 cents) for every 1,000 bricks the workers make.

Rescued workers say there is often no documentation of loans taken or how much debt has been cleared.

"Even before I left my village, I had worked up a debt of nearly 30,000 rupees," Umesh Mahanand, 17, said. "But I thought I would work hard and repay it quickly. I didn't realise that the amount can technically never be repaid."

THE NEW NORMAL

It's all said to have started in the 1970s with a man named Dashrath Suna, known as a champion brick maker. He was one of the first men to migrate from Balangir, one of the poorest districts in western Odisha.

"I was very good and could make 6,000 bricks a day," Suna told the Thomson Reuters Foundation at his home in Belpada village, 50 kilometres (30 miles) from the Kantabanji.

"The brick kiln owner was happy and asked me to bring in friends to work the next time. I did and slowly it became a business."

Suna would cycle to far-flung villages, offering small loans around the festive time of Nuakhai in September, when farmers celebrate the rice harvest.

"Everyone needs a little extra cash around Nuakhai, to buy clothes, cook a good meal, drink a little and celebrate," he said.

So he convinced families to migrate out of the drought-prone region, where reliable employment is rare.

"I was able to convince them and the labour market was built on the trust between the brick kiln owner, the agent and the labourer," the octogenarian said.

As the labour market grew, so did Suna's fortunes. Over the years, he built a two-storey house in Belpada, where he lives with his children and grandchildren.

His success spurred others to become labour agents.

"Everyone in this village has profited from migration," said his son, Ruku Sona, a popular singer in the region.

"Even the labourers have benefited. Every home will have a motorcycle now. It wouldn't have been possible if labour wasn't sent out. Nobody should really be complaining."

In the bylanes of Kantabanji, Suna's name is whispered with reverence. But Bablu Khan's is uttered with fear.

One of Suna's men in the early days, his job was to pay off labour inspectors and railway police and fight other agents to ensure the workers Suna had picked made it onto the "migration express".

Once he'd learnt the ropes, he started out on his own.

Bablu Khan soon became the biggest player in the market, sending out more labour than any other agent and quickly changing the ground rules of migration in Kantabanji.

"The market became brutal," said one sub-agent, declining to be identified. "People were herded like cattle and sent on trains. Many survive the journey and the hardships at the brick kilns. Many others don't."

In 2013, the brutality of the business hit global headlines when agents chopped off the hands of two labourers for trying to escape debt bondage. The case is still on at a court in Odisha.

RAILHEAD TO MISERY

Nijam Khan keeps a tidy desk at the Khwaja Garib Nawaz Transport Office, with two biscuit tins in one corner and a picture of his father.

He arrived dressed in a crisp white shirt and blue jeans, preceded by two henchmen who told half a dozen labourers sitting on a bench outside to wait in an alley nearby.

Inside, Nijam Khan showed off his labour agent licence and the lists he keeps. They show who has been sent where and how much each worker has been paid in advance.

"My father had a licence to send 1,400 labourers and we renew it religiously," he said. "Everyone is an agent now and everyone is sending a few hundred people out. It's a way of life here."

Police officials, requesting anonymity, said Nijam Khan sends thousands more workers than his licence allows. Khan denies that he exceeds his legal quota.

The proceeds from migrant labour account for 50 percent of the region's economy, said Haji Mohammad Ayub Khan, Kantabanji's elected representative in the state assembly. His own brother was one of the bigger labour agents in town.

"Government schemes are not reaching remote villages, leaving people with practically no options. If migration is stopped, people will turn criminals. They will take to stealing to stay alive."

To make the process more efficient, he has asked the railway ministry to increase the number of trains heading out of Kantabanji.

Politician Khan's brother, labour agent Haroon Khan, keeps a close eye on goings-on at the Kantabanji railway station.

He sat on a chair on the pavement outside his office, reluctant to talk about a "dying business" he says he had given up.

But in the next hour, over cups of sweet tea, he talked about "the glorious days when business comes to town".

"The hotels would be full and brick kiln owners would hand over large suitcases of money to be distributed as advances," he recalled as it got dark. "There would be a certain air of festivity."

($1=66.723 Indian rupees)

(Reporting by Anuradha Nagaraj; editing by Timothy Large; Please credit the Thomson Reuters Foundation, the charitable arm of Thomson Reuters, which covers humanitarian news, women's rights, trafficking and climate change. Visit news.trust.org)

This is part of our special series 'Links in the trafficking chain, a collection of investigative stories to shine a light on some of the more surprising perpetrators of trafficking – from the extraordinary to the banal.

Our Standards: The Thomson Reuters Trust Principles.

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