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इनसाइट- मारपीट और ऋण बंधन से मुक्ति, लेकिन अभी भी हजारों दास न्याय से वंचित

by नीता भल्ला | @nitabhalla | Thomson Reuters Foundation
Thursday, 26 January 2017 14:41 GMT

Dayalu Nial, 20, stands outside a conference hall in central New Delhi on Jan 21, 2017. Nial, a former bonded labour, had his hand chopped off by human traffickers is one the few victims to get justice despite a four-decade-old law abolishing slavery in India. NITA BHALLA/THOMSON REUTERS FOUNDATION

Image Caption and Rights Information

    नई दिल्ली, 26 जनवरी (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) - दयालु निआल की पीड़ा का अंत पिछले वर्ष दिसंबर में उस समय हुआ जब एक अदालत ने उसकी तस्करी और उसके साथ अत्याचार करने तथा उसके हाथ काटकर उसे मरने के लिये छोड़ देने के अपराध में आठ लोगों को उम्रकैद की सजा सुनाई।

   बंधुआ मजदूर रहे 20 साल के निआल का कहना है कि न्‍याय पाने के लिये तीन साल तक पुलिस, वकीलों, डॉक्टरों और कार्यकर्ताओं के पास गुहार लगाने के बाद उसे अब जाकर शांति महसूस हुई है।

     भूरे रंग की रैक्‍सीन की जैकेट पहने मृदुभाषी निआल ने कहा, "उन्‍होंने जो अपराध किया था उसकी सजा मिलने पर अच्छा लगा। मैंने कभी नहीं सोचा था कि उन्‍हें कभी सजा मिलेगी या मुझे मुआवजा भी मिलेगा।"   

     "मैं जानता हूं कि गुलामी से बचाये गये अन्‍य लोगों की तुलना में मैं अधिक भाग्यशाली रहा। मीडिया ने मेरी काफी सहायता की जिसकी वजह से अधिकारियों पर इस मामले को अंजाम तक पंहुचाने का दबाव बना।"  

   निआल को न्‍याय मिलना अपवाद है, क्‍योंकि भारत में निर्माण स्थलों, ईंट भट्ठों, खेतों और अन्य स्थानों से गुलामी से मुक्त कराये गये हजारों लोग सरकारी मान्यता पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

     जानकारों का कहना है कि 2016 के वैश्विक गुलामी सूचकांक के अनुसार दुनिया में सबसे अधिक गुलाम भारत में होने के बावजूद चार दशक पुराने बंधुआ मजदूर कानून और पुलिस तथा न्यायपालिका में संसाधनों की कमी के कारण कुछ ही पीड़ितों की मदद हो पाती है और कम अपराधियों को सजा मिल पाती है।

    इस तरह के अपराधों की जांच के लिये सरकार द्वारा गठित स्वायत्त निकाय- राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के पूर्व सदस्य अनिल कुमार पाराशर ने कहा, "हमारे यहां बंधुआ मजदूरी से संबंधित कानून है, लेकिन ज्‍यादातर अधिकारियों को इसकी जानकारी नहीं है।"

    "कई बार तो वे इसे बंधुआ मजदूरी का मामला ही नही मानते हैं। मुआवजा प्राप्त करने में भी कई प्रकार की कठिनाइयां होती हैं। इसलिए स्थानीय स्तर पर कानूनों और नीतियों के बारे में जागरूकता फैलाने तथा मामलों की जांच में उचित मदद करने के लिए एनएचआरसी को अधिक जनबल की आवश्‍यकता है।"

  "वेश्यालयों, ईंट भट्ठों में ग़ुलाम"

   दुनिया में गुलामी के सबसे पुराने तरीके बंधुआ और जबरन मजदूरी करवाना है, जहां किसी व्यक्ति से हिंसा कर या उसे धमकी देकर अथवा लिया गया ऋण चुकाने के लिए उससे काम करवाया जाता है।

    ऑस्ट्रेलिया के वॉक फ्री फाउंडेशन के नवीनतम वैश्विक गुलामी सूचकांक के अनुसार विश्‍व के लगभग चार करोड़ 60 लाख गुलामों में से एक करोड़ 80 लाख से ज्यादा दास भारत में हैं।

    हालांकि भारत सरकार के लिये इन आंकड़ों की पुष्टि करना मुश्किल है, लेकिन श्रम मंत्रालय ने हाल ही में 2030 तक एक करोड़ 80 लाख से अधिक बंधुआ मजदूरों की पहचान करने, उन्‍हें बचाने और उनकी मदद की योजना की घोषणा की है।

   तस्कर अधिकतर ग्रामीणों को अच्छी नौकरी दिलाने और पेशगी रकम का लालच देते हैं, लेकिन कर्ज चुकाने के लिये उनसे जबरन खेतों या ईंट भट्ठों में काम करवाया जाता है, वेश्यालयों में गुलाम बनाया जाता है या घरेलू नौकरानियों के तौर पर रखा जाता है।

  अंतर-पीढ़ीगत बंधुआ मजदूरी, जबरन बाल मजदूरी, जबरन भीख मंगवाना और शादी के लिये मजबूर करने के साथ ही जबरन सशस्त्र विद्रोही गुटों में भर्ती करना गुलामी करवाने के अन्‍य तरीके हैं।

  कार्यकर्ताओं का कहना है कि हर साल हजारों बंधुआ मजदूरों को मुक्त कराया जाता है, लेकिन उनकी शिकायत दर्ज नहीं होती है या उनके मामलों की अच्छी तरह से जांच नहीं की जाती है। इस कारण उन्हें वित्तीय सहायता और न्याय पाने या उनकी आजीविका दोबारा शुरू करने में कठिनाई का सामना करना पड़ता है।

  एक्शन एड इंडिया के चंदन कुमार ने कहा, "हर साल हम करीबन 500 लोगों को बचाते हैं और केवल 10 प्रतिशत मामलों में ही उन्‍हें मुआवजा मिल पाता है। एक भी मुकदमा दायर नहीं किया जाता है।"

  "कम अपराधियों को सजा"

   देश की राजधानी के मध्‍य में एक सम्‍मेलन कक्ष के बाहर ठंड से बचने के लिये ऊनी टोपी और जैकेट पहने छह-सात बंधुआ मजदूरी करने वाले अपने उत्‍पीड़न और गुलामी की दास्‍तां सुनाने के लिये खड़े थे।  

  भारत में गुलामी खत्म करने के लिए धर्मार्थ संस्‍थाओं, कार्यकर्ताओं और वकीलों के गठबंधन - राष्ट्रीय बंधुआ मजदूरी उन्मूलन अभियान समिति द्वारा आयोजित बैठक में शामिल होने के लिये ये युवक एकत्रित हुए थे।

   बीस से तीस साल के युवक बताते हैं कि उन्‍हें पीटा जाता था और निर्माण स्थलों पर कमरों में या कपास के खेतों में पशुओं के बाड़े में बंद कर रखा जाता था।

    मध्य प्रदेश के 26 वर्षीय भरत ने कहा, "जमींदार ने मेरे परिवार को 10,000 रुपये का ऋण दिया, जिसे चुकाने के लिये मैं उनके खेत पर काम करने के लिए चला गया था।"

  "लेकिन उसने मुझसे वहां दो साल तक रोजाना 15-15 घंटे काम करवाया। कार्यकर्ताओं ने जनवरी 2015 में मुझे वहां से बचा कर बाहर निकाला। पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया है, लेकिन अभी तक कुछ नहीं हुआ है।"

   उत्तर प्रदेश और ओडिशा के अन्‍य मजदूरों ने मुआवजे का इंतजार और उनका उत्‍पीड़न करने वालों को जेल की सलाखों के पीछे देखने की उनकी धूमिल होती आशा के बारे में बताया।

  दिल्‍ली के नजदीक नोएडा में दो महीने तक एक निर्माण स्थल परिसर में बंद रहे 26 साल के पुषब ने कहा, "मेरे पास मेरी मुक्ति का सरकारी प्रमाण पत्र है, जिसके आधार पर मुझे मुआवजा मिलना चाहिये, लेकिन मुझे अभी तक कुछ भी नहीं मिला है।"

   "यहां तक कि मुझे बंधक बनाने वाला इमारत का ठेकेदार भी भाग गया है। उसके बारे में किसी को कोई जानकारी नहीं है। मुझे नहीं लगता कि उसे कभी भी सजा मिल पायेगी।"

  राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार इस तरह की कई शिकायतें मिलने के बावजूद वर्ष 2015 में केवल 92 मामले बंधुआ मजदूरी के दर्ज किए गए थे। इनमें से सिर्फ एक मामले में चार लोगों को कैद की सजा सुनाई गई।  

   वकील कम शिकायत दर्ज करवाने, अभियोजन और सजा की दर कम रहने का कारण बंधुआ मजदूरी और पुनर्वास कानून तथा नीतियों के बारे में जागरूकता की कमी के साथ ही पुलिस और न्यायिक प्रणाली में संसाधनों और धन की कमी मानते हैं।

   पुलिस को पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं दिया गया है और वह गरीब, अनपढ़ पीड़ितों के प्रति संवेदनशील नहीं होती है, जिसके चलते अक्सर मामले दर्ज नहीं किये जाते हैं। स्थानीय अधिकारी भी मुआवजे की राशि नहीं देना चाहते हैं, जो कुछ मामलों में तीन लाख रुपये तक हो सकती है।

    अगर अदालतों में बंधुआ मजदूरी के मामले चलते भी है तो पीड़ितों को न्‍याय पाने के लिये सालों इंतजार करना पड़ता है। भारत में 130 करोड़ की आबादी के लिये अभी भी बहुत कम अदालतें, न्यायाधीश और सरकारी व‍कील हैं और अदालतों में करोड़ों मामले लंबित पड़े हैं।

  कार्यकर्ताओं का मानना है कि कम लोगों को दोषी करार देने के पीछे पुलिस और अभियोजन पक्ष द्वारा ठीक से जांच न करने और गवाहों तथा पीडि़तों की सुरक्षा में कमी होती है, क्‍योंकि गवाहों और पीडि़तों को बयान बदलने या आरोप खारिज करने के लिये धमकाया जा सकता है।   

  "कानून की जानकारी, मीडिया का साथ"

    पिछले महीने ओडिशा की एक अदालत द्वारा निआल के मामले में सुनाये गये फैसले का हवाला देते हुए मानवधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस निर्णय के बाद न्याय और मुआवजा पाने में कठिनाइयों के बावजूद बंधुआ मजदूर रहे लोगों को आशावादी बने रहना चाहिये।

    दिसंबर 2013 में एक तस्‍कर ने जिन 12 मजदूरों को काम करने के लिये पैसा दिया था,  उनमें से एक निआल था, लेकिन वे गुलामी के जाल में फंस गये थे।

   जब मजदूरों को अहसास हुआ कि उन्‍हें तय किये गये स्थान की बजाय अन्‍य जगह पर काम करने के लिए ले जाया जा रहा है तो उन्‍होंने भागने की कोशिश की, लेकिन निआल और एक अन्य मजदूर नीलाम्‍बर धांगदामाझी को तस्करों ने पकड़ लिया और दोनों का दाहिना हाथ काट दिया था।

     इस मामले के सरकारी वकील धीरेंद्र नाथ पात्रा ने कहा कि राष्ट्रीय सुर्खियों में आये यातना और बंदी बनाने के इस मामले की पैरवी के लिये उन्‍होंने बंधुआ मजदूरी कानून का अच्‍छी तरह से अध्‍ययन किया था।

    उन्होंने कहा, "अदालती कार्रवाई में तीन साल लगे, जिसे तेजी से की गई सुनवाई माना जाता है। इसके लिये आठ लोगों को आजीवन कारावास की सजा सुनाई गई।"

     इस मामले के मीडिया में आने की वजह से 2014 में उच्‍चतम न्‍यायालय ने हस्तक्षेप कर ओडिशा सरकार से तस्करों के खिलाफ तेजी से आरोप तय करने और दोनों पीडि़तों को सहायता उपलब्‍ध कराने को कहा था।

   सरकार की ओर से दोनों को आठ-आठ लाख रुपये का मुआवजा दिया गया, लेकिन केवल निआल ही अपने अपराधियों की सजा देखा पाया।

   क्‍योंकि फैसला आने के तीन महीने पहले 35 साल के धांगदामाझी का पिछले साल 21 सितंबर को निधन हो गया था।

    निआल ने कहा, "मुझे उसकी मृत्‍यु के बारे में सुनकर बहुत दुख हुआ था। फैसला जानने के लिए उसे जिंदा रहना चाहिए था। हो सकता है कि इस मामले के निपटने से उसे भी वही शांति मिलती जो मैं इस समय महसूस कर रहा हूं।"

(रिपोर्टिंग- नीता भल्‍ला, संपादन- केटी नुएन; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org) 

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