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कार्यकर्ताओं ने आगाह किया कि भारतीय स्कूलों में गर्मी की छुट्टी के दौरान तस्कयर करते हैं बाल मजदूरों की भर्ती

by Anuradha Nagaraj | @anuranagaraj | Thomson Reuters Foundation
Tuesday, 8 May 2018 06:48 GMT

     - अनुराधा नागराज

     चेन्नई, 8 मई (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – कार्यकर्ताओं का कहना है कि स्कूल में गर्मी की छुट्टी होते ही मानव तस्कर पूरे देश में गरीब माता-पिता को उकसाने में जुट जाते हैं कि वे छुट्टियों में अपने बच्चों को कारखानों और खेतों में काम करने के लिए भेजें।

      तस्करी रोधी समूह आगाह करते हुये सरकार से आग्रह कर रहे हैं कि दो महीने के छुट्टी के दौरान बाल मजदूरी के खिलाफ कार्रवाई की जाये, क्‍योंकि कई बच्चे काम शुरू करने के बाद फिर कभी स्कूल नहीं लौटते हैं।

     तस्करी रोधी धर्मार्थ संस्‍था- इंटरनेशनल जस्टिस मिशन के कुरलामुथन तांडवरायन ने कहा, "इस समय तस्‍कर शिकार की ताक में खेल के मैदानों और आस-पास की दुकानों पर मंडराते रहते हैं।"   

      "वे गरीब परिवारों के बच्चों पर नजर रखते हैं और उनके माता-पिता को समझाते हैं कि उनके बच्चों को खेलने या घर पर ऐसे ही बैठे रहने देने में समय बर्बाद करने की बजाय वे कमाई कर सकते हैं।"

    अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार भारत में 5 से 14 वर्ष की उम्र के लगभग एक करोड़ 10 लाख मजदूर हैं।

      इनमें से आधे से अधिक खेतों में मजदूरी करते हैं और एक चौथाई से अधिक विनिर्माण क्षेत्र में परिधानों पर कढ़ाई करते, कालीन बुनते, माचिस की तीलियां और चूड़ियां बनाते हैं।

      लाभ निरपेक्ष संस्‍था– ट्रस्‍ट फॉर एजुकेशन एंड सोशल ट्रांसफॉरमेशन के जोसेफ राज ने कहा, "अधिकतर गांवों में माता-पिता दोनों ही काम करते हैं, ऐसे में (कपड़ा) कारखानों के लिये कम वेतन पर मजदूर की तलाश करते भर्ती एजेंट ग्रीष्मकालीन अवकाश के दौरान घर में रहने वाले किशोर बच्‍चों को बरगलाते हैं।"

       अन्य बच्चे नवंबर से जून तक यानि बरसात का मौसम शुरू होने से पहले तक ईंट भट्ठों में अपने माता-पिता के साथ काम करते हैं।

      मानवाधिकार समूह- एंटी-स्लेवरी इंटरनेशनल और वालंटियर्स फॉर सोशल जस्टिस की 2017 की एक रिपोर्ट के अनुसार इन भट्ठों की भर्ती और भुगतान प्रणाली के कारण प्रवासी श्रमिक बंधुआ मजदूरी के जाल में फंस जाते हैं।

      रिपोर्ट में कहा गया है कि यहां मजदूरी कम होती है और अक्सर कार्यावधि के अंत में भुगतान किया जाता है। इसके अलावा न्यूनतम मजदूरी पाने के वास्‍ते 1,000 ईंट प्रतिदिन बनाने के लिये परिवारों को मजबूरन अपने बच्चों से भी काम करवाना पड़ता है।

        समर्थक समूह- नेशनल आदिवासी सॉलिडेरिटी काउंसिल के कृष्णन कंदासामी ने कहा, "एजेंट नए शै‍क्षिक सत्र के लिए बच्चों को वापस गांव लाने का वादा करते हैं, लेकिन समस्या यह है कि उनमें से कई लोग वापस नहीं आते हैं।"

       तमिलनाडु सरकार के आंकड़े दर्शाते हैं कि 2017 में ऋण बंधन से बचाए गए 1,821 लोगों में से लगभग 30 प्रतिशत बच्चे थे।

       कंदासामी ने थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को बताया, "यह सिलसिला बच्चों द्वारा अपने माता-पिता की मदद करने से शुरू होता है, लेकिन धीरे-धीरे वे अधिक समय तक काम करने लगते हैं।"

     उन्होंने कहा कि उनके संगठन ने इस साल दक्षिणी राज्‍य तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश में 456 बंधुआ मजदूरों को मुक्‍त कराया, उनमें से कई बच्चे थे।

      कंदासामी ने कहा, "हमने देखा है कि आम के बागों, चमेली के फूल के खेतों, ईंट भट्ठों, कबाड़ छांटने के स्‍थानों पर काम करने और मवेशी चराने वाले बच्चों की संख्‍या बढ़ रही हैं।"

(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- जेरेड फेरी; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)

 

 

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