- अनुराधा नागराज
डिंडीगुल, 16 अगस्त (थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन) – कार्यकर्ताओं का कहना है कि दक्षिणी भारत की एक युवा कपड़ा कर्मी पर आधारित एक फिल्म से ग्रामीण समुदायों के बीच शोषण और उत्पीड़न से ग्रसित इस उद्योग के बारे में बहस छिड़ गई है।
"कॉल मी प्रिया" नाम की फिल्म तमिलनाडु की एक युवा महिला की कहानी है, जहां के 1,500 कताई कारखानों में लगभग चार लाख लोग वैश्विक कंपनियों के लिए कपास से सूत कातने, कपड़ा बनाने और परिधान तैयार करने का काम करते हैं।
मुख्य रूप से गरीब, निम्न जाति के समुदायों की युवा महिलाओं सहित श्रमिकों की सुरक्षा के कानूनों के बावजूद वे दिन में 12 घंटे या उससे अधिक मेहनत करते हैं और उन्हें अक्सर धमकाया जाता है, उन पर अश्लील फब्तियां कसी जाती हैं और उनका उत्पीड़न होता हैं।
कार्यकर्ताओं का कहना है कि इसके बावजूद अभी भी कई लोग इस उद्योग में काम के दौरान झेले जाने वाले खतरों से अनजान हैं और जो लोग इस उद्योग में कार्यरत हैं उन्हें नहीं पता कि उत्पीड़न से कैसे निपटा जाए।
13 धर्मार्थ संस्थाओं का उद्देश्य तमिलनाडु के 405 गांवों में "कॉल मी प्रिया" फिल्म की स्क्रिनिंग कर समुदायों को इस उद्योग की सही तस्वीर दिखाने के साथ ही कर्मियों में एकजुटता की भावना भरना है।
फिल्म की स्क्रिनिंग पर चर्चा की रूपरेखा तैयार करने में मदद करने वाले बाल अधिकार कार्यकर्ता राममुर्ती विद्यासागर ने कहा, "हमारा इरादा युवा कर्मियों में दृढ़ता का भाव पैदा करना है और आने वाले समय में कारखानों में काम करने के लिए तैयार किशोरों को सशक्त बनाना है।"
इस वर्ष की शुरुआत में तमिलनाडु के कपड़ा कारखानों और श्रमिकों के हॉस्टलों में कार्यकर्ताओं की पड़ताल में तीन महीने के दौरान संदिग्ध आत्महत्याओं सहित मौत की 20 घटनाएं उजागर होने के कारण इन लक्ष्यों को अविलम्ब पूरा करना आवश्यक है।
आधे घंटे की फिल्म निर्माताओं द्वारा 60 से अधिक कारखाना कर्मचारियों से की गई बातचीत पर आधारित है। इसके अलावा इसमें कार्यकर्ताओं द्वारा उन 308 बंधुआ मजदूरों से लिए गए बयान भी शामिल किए गए हैं, जो ऋण का भुगतान करने तक बगैर वेतन काम करते हैं।
फिल्म की मुख्य पात्र प्रिया प्रतिभाशाली छात्रा है, जिसे अपने माता-पिता का कर्ज चुकाने में मदद के लिए जबरन कताई मिल में काम करना पड़ता है। यह ऐसी स्थिति है, जिसे ज्यादातर युवा कर्मी महसूस कर सकते हैं।
इस फिल्म में प्रिया के माध्यम से कारखानों में यौन उत्पीड़न, कम मजदूरी, नियोक्ताओं के झूठे वादों और उनके घरों की गरीबी को दर्शाया गया है।
जहां फिल्म में कर्मियों के उत्पीड़न का गंभीर चित्रण किया गया है वहीं स्क्रिनिंग के अवसर पर चर्चाओं के आयोजन से उन सामाजिक परिस्थितियों का भी पता चलता है, जिनके कारण युवा महिलाएं कपड़ा उद्योग में काम करने को राजी होती हैं।
हाल ही में कुरुम्पट्टी गांव में फिल्म स्क्रिनिंग में श्रमिकों ने प्रिया के संघर्ष, एक 15 वर्षीय लड़की के काम करने की क्षमता के साथ ही शराब की लत और लिंग के आधार पर भेदभाव जैसे मुद्दों पर चर्चा की।
तमिलनाडु के डिंडीगुल जिले में परिधान कर्मियों की सहायता करने वाली धर्मार्थ संस्था सीरीन सेक्युलर सोशल सर्विस सोसाइटी की समन्वयक शिवरंजनी चिन्नामुनीयादी ने कहा, "फिल्म में वास्तव में उनकी जिंदगी दिखाई गई है।"
"लड़कियां खुल कर बात करती हैं कि क्यों वे इन कारखानों में काम करने लगीं, यह कितना थकाऊ काम है और वे इस काम को छोड़ना चाहती हैं।"
फिल्म की स्क्रिनिंग का आयोजन करने वालों के अनुसार जहां फिल्म समाप्त होती है वहीं से विशेष रूप से गहन चर्चा शुरू होती है।
प्रिया अपनी सामाजिक और रोजगार की चुनौतियों पर विजय प्राप्त कर डॉक्टर बन जाती है। इसके साथ ही फिल्म ख़ुशनुमा मोड़ पर समाप्त होती है, लेकिन कई कपड़ा कर्मियों का कहना है कि उनके लिए ऐसा मुकाम हासिल करना असंभव है।
विद्यासागर ने कहा, "चर्चा होना अच्छी बात है। हम चाहते हैं कि वे शोषण पर सवाल उठाएं और अपने हालात में सुधार के लिए एक-दूसरे की मदद करें। कोशिश कर्मियों में उम्मीद जगाना भी है।"
(रिपोर्टिंग- अनुराधा नागराज, संपादन- जेरेड फेरी; कृपया थॉमसन रॉयटर्स की धर्मार्थ शाखा, थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन को श्रेय दें, जो मानवीय समाचार, महिलाओं के अधिकार, तस्करी, भ्रष्टाचार और जलवायु परिवर्तन को कवर करती है। देखें news.trust.org)
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